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सात फेरों की क्या ताक़त है जो इंसान को एक-दूसरे से बाँध सके । बंधन इंसान की कमज़ोरी है और मुक्ति उसका आत्म-विश्वास है । व्यक्ति किसी बाह्य कारण से नहीं, अपने ही मोह - तत्त्व के कारण बँधा हुआ है। वह अपने कारण ही अपने-आप से बँधा हुआ है। हमें यही तो समझना है कि हम किससे बँधे हुए हैं। जो भी ध्यान करेगा वह देखेगा कि वह अपने ही संस्कारों से बँधा है। जन्म-जन्मांतरों से जो संस्कार बाँधे गये हैं उन्हीं की तरंगों से, उन्हीं घेरों से, उन्हीं लहरों से, बेड़ियों से, जंजीरों से, शलाखाओं से हम सभी बँधे हुए हैं । ये सारे बंधन अन्तर्मन के बंधन हैं ।
हम लोग जो भी कार्य करते हैं वह अन्तर्मन की प्रेरणा से ही तो करते हैं। काया तो माध्यम है, इसे जैसा भीतर से निर्देश मिलेगा वैसा स्वरूप प्रगट कर देगी। मन में अगर क्रोध उठ गया है तो काया भी कँपकँपाने लग जाएगी । मन में विकार उठ गया तो काया भी वैसी ही संवेदनशील हो जाएगी। काया कुछ नहीं करती । करने वाला व्यक्ति का अन्तर्मन है । वही बँधा है और वही प्रेरक भी है। मन अगर मंदिर जाना चाहता है तो काया मंदिर की अनुयायी बन जाएगी। मन मधुशाला जाना चाहेगा तो काया मदिरा पीने लग जाएगी।
कहा जाता है कि धर्मराज के पास यमदूत दो प्राणियों को लेकर आए । उनमें एक तो किसी मठ का मठाधीश था, दूसरा जीव एक गणिका का था । मठ और गणिका का भवन आमने-सामने ही थे। दोनों के जीव यमदूत ले आये थे । धर्मराज ने चित्रगुप्त से, अपने निजी सचिव से पूछा- बताओ इन दोनों को किस-किस गति में डाला जाए । चित्रगुप्त ने कहा मेरे लेखे के हिसाब से मठाधीश को नरकगति और गणिका को स्वर्गगति मिलेगी। यह सुनते ही एक बार तो धर्मराज भी चौंके और संत व गणिका का चौंकना तो स्वाभाविक ही था । गणिका कहने लगी- महाराज आपसे कुछ गलती हो गई है। अरे, मैं तो गणिका हूँ। अपनी देह बेचने वाली, नाचने वाली, मैंने तो जीवन भर पाप ही पाप किया । आप उल्टा बोल गए हैं। संत को स्वर्ग और मुझे नरक मिलना चाहिए ।
संत भी आग-बबूला हो गया - चित्रगुप्त ! तुम्हारे न्याय में यह कैसी गलती, संत को नरक दे रहे हो ? तुमसे अच्छे तो ये धरती के लोग हैं। जरा नीचे झाँककर तो देखो वहाँ पर लोग मेरी शवयात्रा निकाल रहे हैं और मेरी जय-जयकार
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