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जाते हैं, मुर्दों को जलाते भी हैं लेकिन कोई विरला ही ऐसा व्यक्ति होता है जिसे यह सब देखकर जीवन की नश्वरता का बोध हो जाया करता है। शेष तो हम सभी रुग्ण, वृद्ध, गर्भवती, मृत देखते हैं पर आत्मा में न कोई हिलोर उठती है और न ही अनासक्ति का कोई फूल खिलता है । जिन्हें मुक्ति चाहिए वे महावीर की शरण में आएँ, जिन्हें अपना कल्याण चाहिए वे महावीर के साथ अपने दिल के तार जोड़ें। जो महावीर से प्रेम करते हैं, अपनी मुक्ति से प्रेम करते हैं वे इन बातों को हु बारीकी से मन लगाकर समझें और अपना कल्याण करें। मेरे विचार से महावीर की बातें और उनके संवाद उन स्थितियों में ही कारगर हो सकते हैं जब इन्सान को अनित्य संसार का वास्तव में बोध हो जाए।
अतीत में वासवदत्ता नाम की एक नर्तकी मथुरा में हुई थी। उसका रूप, उसका नाम, उसकी विद्या, नृत्यकला न केवल मथुरा में वरन् दूर-दूर देश-प्रदेश में प्रसिद्ध थी । एक दिन वह अपने गवाक्ष में बैठी थी कि वहाँ से एक रूपवान बलिष्ठ युवा- संत भिक्षु गुजरने लगा कि तभी वासवदत्ता की नज़र उस पर पड़ी। वह उसे देखते ही प्रभावित हो गई और संत को आमन्त्रित किया। संत उसके घर आया और अभिवादन करते हुए कहा - कहो भद्रे ! मेरे लिए क्या सेवा है ? अभिभूत नर्तकी ने कहा- पहली बार मैं किसी की ओर आकर्षित हुई हूँ, बाकी तो सारी दुनिया मुझे देखकर आकर्षित होती है, मेरी दीवानी बन जाती है लेकिन जब से तुम्हें देखा है तब से अपना दिल तुम्हें दे दिया है। आज से मेरे सारे सुख-साधन, मेरे द्वारा अर्जित की गई सारी सम्पत्ति, मेरा यह सारा सौन्दर्य, मेरी काया और मैं खुद आज से तुम्हें समर्पित हैं ।
और कहा मुस्कुराया
भिक्षु ने ध्यान से नर्तकी को देखा, अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो मैंने स्वीकार किया । यह कहते हुए वह वहाँ से निकलने लगता है तो वासवदत्ता उसे रोकते हुए कहती है - जब आपने मुझे स्वीकार कर लिया है तो फिर जा कहाँ रहे हैं। भिक्षु ने कहा- मैं फिर कभी आऊँगा - यह कहते हुए भिक्षु चला जाता है। वासवदत्ता ने वर्षों तक भिक्षु की प्रतीक्षा की लेकिन भिक्षु लौटकर नहीं आया। वासवदत्ता नर्तकी थी, देह व्यापार करती थी लेकिन अब उसने अपने हर ग्राहक के लिए दरवाजा बंद कर दिया था । नगरवधु होने के कारण अब उसे कई तरह के संक्रामक रोग भी हो गए थे। शरीर से दुर्गंध आने
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