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है और जीवन के लिए सार्थक बनता है। तब उसके उठे हुए कदम मुक्ति-मार्ग की ओर बढ़ने वाले कदम हो जाते हैं। महावीर जिस मोक्ष की बात करते हैं उसका अर्थ ही मुक्त हो जाना है। कर्मों से मुक्त हो जाना, जिन अनुबंधों से मनुष्य बँधा हुआ है उनसे मुक्त हो जाना, अपने कर्मानुबंधों से, कर्म-प्रकृतियों से, भीतर आरोपित हो चुकी कर्म-प्रवृत्तियों से मुक्त हो जाने का नाम ही मोक्ष है।
जब कोई जीव मुक्त हो जाता है, मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है तब उसे पुनः इस भव-चक्र में आना नहीं पड़ता - ऐसा शास्त्रों का वचन है। वह ऐसे शाश्वत लोकों को उपलब्ध कर लेता है जो इस अखिल ब्रह्माण्ड का सबसे ऊपरी छोर है। आकाश का सर्वोच्च किनारा, जहाँ से वापस लौटकर आना नहीं पड़ता। वह परम मुक्त अवस्था को, परम सिद्धशिला को, शैलेषी अवस्था को उपलब्ध कर लेता है। कहते हैं - वहाँ न शब्द का प्रवेश है, न दुःख का प्रवेश है, न तर्क का प्रवेश है, न इन्द्रियों की पहुँच है और न ही शरीर की पहुँच है। वहाँ तो केवल आत्म-चेतना ही मुक्त होकर पहुँचती है।
जीव दो प्रकार के होते हैं- एक संसारी जीव, दूसरे सिद्ध जीव। जब तक कोई भी जीव मुक्त नहीं हो जाता तब तक वह संसारी प्राणी ही कहलाता है। दूसरा होता है सिद्ध जीव जो मुक्त, सिद्ध, बुद्ध हो गया। संसारी प्राणियों के लिए, साधना-पथिकों के लिए आत्मज्ञानियों की ये बातें उनकी मुक्ति के लिए, कल्याण के लिए हैं। महावीर भी मुक्ति की बात करते हैं, वे प्रत्येक व्यक्ति को मुक्ति दिलाना चाहते हैं। अगर हमें कहीं जाना है तो उस मंज़िल तक जाने के लिए कोई-न-कोई पथ, रास्ता ज़रूर होगा। सीधे ऊपर नहीं चढ़ा जा सकता। उसी तरह साधना के लिए भी कुछ न्यूनतम सोपान हैं। एक व्यवस्था होती है जिससे चलते-चलते ऊपर पहुँचें या इन्हीं सीढ़ियों के जरिए धीरे-धीरे वापस नीचे आएँ । जो सीढ़ियाँ चढ़ने के काम आती हैं वही उतरने में भी प्रयुक्त होती हैं। व्यक्ति जिन सीढ़ियों से नीचे गिरा है अगर उन्हीं का उपयोग सार्थक और सचेतनता से कर ले तो वही सीढ़ियाँ उसके ऊपर चढ़ने में भी मददगार बन जाएँगी।
पुरानी धार्मिक पुस्तकें कहती हैं कि जो व्यक्ति संसार में प्रवेश कर रहा है और विवाह भी कर लिया है - वह नरक की तरफ गया। लेकिन वे ही पति या
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