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प्यार होता है, पर अपने आपसे प्यार नहीं होता। अध्यात्म अपने आपसे प्यार है। ध्यान भी अपने आप से अपनी मोहब्बत है। जब गीता कहती है कि अपने द्वारा अपना उद्धार करो तो इसका अर्थ यही हुआ कि खुद से प्रेम का रिश्ता जोड़ो। हमारा पहला मित्र हम खुद हैं। अगर स्वयं को अपना मित्र मानोगे तो दुनिया में सब लोगों से मित्रता साध लोगे। अगर स्वयं के प्रति अपनी मंगल मैत्री न सधी तो किसी के प्रति मित्रता होगी और किसी के प्रति शत्रुता । क्यों ? क्योंकि हम दूसरों से ही जुड़ते चले गए। अगर स्वयं से प्रेम किए बिना दूसरों से प्रेम किया तो यह प्रेम टूट भी सकता है। प्रेम में जो हमें स्वयं में दिखाई देता है वही सबमें दिखाई देता है। जो परमात्मा हमें खुद में नज़र आता है वही सबमें दिखाई देता है। जो स्वयं से नफ़रत नहीं करता वह दूसरों से भी कभी नफ़रत नहीं कर सकता। दूसरों से नफ़रत करना स्वयं से ही नफ़रत करने के समान है।
___ मेरे भीतर हमेशा मुस्कान भरी रहती है, क्यों ? इसलिए नहीं कि दूसरों को मुस्कान देनी है बल्कि इसलिए कि भीतर में मुस्कान है अतः दूसरों तक पहुँच जाती है। अध्यात्म का मूल नज़रिया है कि तुम अपने आपसे प्रेम करो, अपनी चेतना, अपनी आत्मा, अपनी मुक्ति से प्रेम करो। फिर तुम जो कुछ भी करोगे तुम्हें मुक्ति ही मिलेगी। पर अपनी मुक्ति को भूलकर दूसरों की मुक्ति के लिए जागरूक बनोगे तो उनकी मुक्ति भी तुम्हारे लिए बंधन बन जाएगी । वे मुक्त हो पाए कि न हो पाए किंतु तुम ज़रूर बँध जाओगे। सातवाँ धरातल ‘अप्रमाददशा' का है कि जाग गया। कोई व्यक्ति सोया हुआ था पर जाग गया। हम सभी ऊँघ रहे हैं, पर कभी कोई जाग गया।
कहते हैं रज्जब अपने गुरुजी के पास पढ़ने के लिए गया था। शिक्षा अर्जन करते हुए संन्यास के भाव बन गए । संन्यास लेना भी चाहता था, पर गुरुजी ने उसके भोजन की व्यवस्था एक सद्गृहस्थ के घर में कर रखी थी। वहाँ एक सुन्दर-सी लड़की थी। रज़्ज़ब को उससे प्रेम हो गया और शादी करने का संकल्प कर लिया। शादी तय हो गई। शादी करने के लिए एक दिन घोड़ी पर चढ़कर निकल भी पड़ा। जैसे ही शादी के लिए तोरण पर पहुँचा तभी गुरुजी आ गए। और गुरुजी ने कहा – वाह रे रज्जब -
रज्जब तें गज़्ज़ब किया, सिर पर बांधा मौर ।
आया था हरिभजन को, करे नरक की ठौर ।। १९२
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