________________
कर रहे हैं। यह मुक्ति का पैग़ाम है। जो इन्सानियत के नाम यह पैग़ाम देते हैं वे दूसरों की गलती को भी सहन कर लेंगे पर उन्हें मुक्त कर देंगे। भगवान महावीर भी मुक्ति के महान देवदूत हैं। वे मानव मात्र की मुक्ति चाहते हैं । वे चाहते हैं कि व्यक्ति जब तक जिए मुक्ति के आनन्द में जिए और जिस दिन वह अपने नश्वर शरीर का त्याग करके चला जाए उस दिन वह मोक्ष और निर्वाण का मालिक बन जाए। जो व्यक्ति राग और द्वेष नहीं करता वह जीते जी मुक्त है। हम राग-द्वेष करेंगे तो कर्म के बन्ध- अनुबन्ध प्रगाढ़ होंगे और हमारी जीवात्मा पुनः पुनः भवचक्र में उलझती चली जाएगी। जो राग-द्वेष नहीं करते वे स्वतः ही कर्मों से, कषायों से मुक्त होते जाते हैं। वीतराग और वीतद्वेष होना मुक्ति का आधार है। मेरी दृष्टि में तो जो क्रोध नहीं करता, लोभ, मोह, माया में नहीं उलझता वह जीते जी मुक्त है। उस मुक्ति का क्या करेंगे जो मृत्यु के बाद मिलती हो ? उसको किसने देखा है? उसका स्वाद किसने लिया ? मुख्य तो यह है कि हम जीते-जी मुक्ति का आनन्द लें, दूसरों को भी मुक्ति का स्वाद चखाएँ और स्वयं भी मुक्त हों । स्वयं मुक्त होंगे तभी दूसरे को मुक्ति दे पाएँगे। अगर हम ही शांत न होंगे तो दूसरे की अशांति का हरण कैसे कर पाएँगे? जिससे सदाबहार आनन्द मिलता हो, जहाँ व्यक्ति के चित्त में, चेतना में, अन्तर्मन में सदा आनन्द रहता हो वह दशा ही मुक्त दशा है। आनन्द का मतलब है जिसे दुनिया की कोई भी बाधा विचलित न कर पाए। जिसे किसी की विपरीत टिप्पणी, अपमान, उपेक्षा, हानि विचलित कर दे उसका वक्त बेवक्त आनंद खंडित हो जाता है, लेकिन जो क्रोध-कषाय से मुक्त है वह निश्चित ही मुक्त है । जो राग-द्वेष से मुक्त है, वह शत-प्रतिशत मुक्त है।
महावीर ने दो शब्दों का प्रयोग किया है - सयोगी केवली और अयोगी केवली। अपनी सरल भाषा में मैं इसे सयोगी मोक्ष और अयोगी मोक्ष कहूँगा । सयोगी मोक्ष यानी मन, वचन, काया का योग जो अभी तक है फिर भी व्यक्ति मुक्त हो जाए। क्योंकि अब उस पर राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ और माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जो निर्मोही हो गया है, वीतमोह, वीतराग और वीतद्वेष हो गया ऐसा व्यक्ति अपने आप ही मुक्त हो गया। दूसरा होता है अयोगी मोक्ष यानी कि मन, वचन, काया का योग भी गिर चुका है, मृत्यु ने उसे
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
-
१९५ www.jainelibrary.org