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जाने वाला, परमात्मा की ओर ले जाने वाली पगडंडी का प्रतीक है। इसलिए एक तरफ सेलीब्रेट भी करो तो दूसरी ओर मेडीटेट भी करो। ध्यान भी हो, उत्सव भी हो, संसार भी हो और संन्यास भी हो। संसार के साथ जब संन्यास होगा तब यह संसार भी धीरे-धीरे हमें मुक्ति की ओर ले जाएगा । हमारी आँखों में यह सपना होना चाहिए कि एक-न-एक दिन हम भी संत बनेंगे और संन्यास धारण करके अपने शेष जीवन को धन्य करेंगे। जिस दिन हम संसार के उम्र की दहलीज़ को पार कर लेंगे; माना कि गृहस्थ-आश्रम की उम्र पचास साल है लेकिन लगता है कि मोहासक्तियाँ अधिक ही हैं, नहीं छूट पा रही हैं तो साठ साल तक खींच लें, लेकिन जिस दिन साठ वर्ष पूरे हो जाएंगे, इकसठवाँ वर्ष लगते ही हम वानप्रस्थी की तरह जिएंगे। अर्थात् घर में रहते हुए भी निर्लिप्त जीवन जीने का प्रयत्न करेंगे। वानप्रस्थी अर्थात् मुक्ति की ओर बढ़ गया और गृहस्थ अर्थात् संसार में उलझ गया। वानप्रस्थी समाधि की ओर निकल गया। अब पहुँच पाए या न पहुँचे यह अलग बात है, लेकिन उसने पुरुषार्थ तो शुरू कर दिया, निकल तो पड़े, सद्भाव और संकल्प तो जग गया। अंतर में इच्छाशक्ति तो निर्मित हो गई। वानप्रस्थी की तरह - जैसे व्यक्ति का जीवन वन में होता है वैसा हो जाना चाहिए । शाकाहारी खाना खाएँगे, रात्रि भोजन नहीं करेंगे, संयमित जीवन जिएंगे, पानी छानकर पिएँगे, पवित्र वाणी बोलेंगे, अच्छे सकारात्मक विचारों को स्थान देंगे। जीवन में घटने वाली अच्छी-बुरी घटना से स्वयं को संबद्ध नहीं करेंगे अपितु प्रकृति की व्यवस्था मानकर सहज रूप से स्वीकार कर लेंगे। ये सब तरीके हैं जो व्यक्ति को धीरे-धीरे गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थ की ओर ले जाते हैं।
जिस दिन हमें महसूस हो जाए कि वानप्रस्थ की उम्र हो गई स्वयं को गृहस्थी के कार्यों में न उलझाएँ। अपनी जिम्मेदारियों को बच्चों पर डालें। हम कब तक खींचते रहेंगे। माना कि आपकी उम्र साठ वर्ष है तो आपके पुत्र की आयु अवश्य ही तीस वर्ष होगी। तीस वर्ष का युवा बालक नहीं पूर्ण पुरुष होता है और पूर्ण पुरुष के लिए चिंता करना संसार को ढोते रहना है । वानप्रस्थ अर्थात् घर में कोई हस्तक्षेप नहीं। जो होना है सो हो जाए, अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं। अन्यथा बच्चों के आवेश और आक्रोश हम पर हावी होने लगेंगे और वे अपनी अलग राह चुन लेंगे।
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