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बनकर जाएँ कि उनकी ओर से जो दिया जा रहा है उसे हम प्रेम और श्रद्धा से ग्रहण करें। तर्क हमें कभी ग्रहण नहीं करने देगा और हम पताका की तरह अस्थिर चित्त बने रहेंगे ।
कई लोग भव्य व दिव्य पराक्रम करते हैं और गृहस्थ जीवन त्याग कर संन्यास जीवन अंगीकार कर लेते हैं । वे धन्य होते हैं जो संन्यासी होकर प्रभु के दिव्य मार्ग का वरण कर लेते हैं। मैंने तो पाया है कि संसार के सैंकड़ों थपेड़े खाने के बावज़ूद व्यक्ति के मन में संन्यास लेने की प्रेरणा नहीं जगती । जो व्यक्ति संसार से आक्रांत हो जाता है, पीड़ित हो जाता है वह आत्महत्या करने को तो तत्पर हो जाएगा लेकिन संत बनकर स्वकल्याण की भावना नहीं जग पाती ।
कुछ लोग संन्यास लेते हैं वर्तमान जीवन को सुधारने के लिए। कुछ विवशता में जैसे कि गरीबी, अन्न की कमी के कारण साधु बन जाते हैं कि खाने को अच्छा भोजन मिल जाएगा और लोगों द्वारा मान-सम्मान भी मिलेगा। ऐसे साधुओं का धर्म से, आत्मा से, प्रभु से कोई लेना-देना नहीं होता । वे तो खान-पान, रहन-सहन आलीशान चाहते हैं और इसी पर उनकी नज़र टिकी रहती है। ऐसे महाराज केवल अपना वर्तमान लोक सुधारना चाहते हैं । कुछ परलोक सुधारने के लिए संन्यासी हो जाते हैं कि मृत्यु निकट है और संन्यास ले लेते हैं। मृत्यु से पहले कुछ लोग संथारा ले रहे हैं, डॉक्टर ने ज़वाब दे दिया है तो मरने से पहले एक दिन के लिए ही सही दीक्षा ले लेते हैं कि कम-से-कम परलोक तो सुधर जाएगा। धर्म-कर्म इसीलिए हो रहा है कि परलोक सुधारना है। तीसरी किस्म के लोग इस लोक और परलोक दोनों को सुधारना चाहते हैं । पर चौथी किस्म के लोगों का संबंध न तो इस लोक से होता है न परलोक से । वे तो विशुद्ध रूप से अपने आत्म-कल्याण के लिए संन्यास जीवन वहन करते हैं । विशुद्ध रूप से परमात्म-प्राप्ति के लिए, अपने दुःख - दौर्मनस्य का नाश करने के लिए, वैर-वैमनस्य को जड़ से समाप्त करने के लिए, अपने मनोविकारों को, अपनी इन्द्रिय-विषयों की मोहासक्तियों को जड़ से उच्छेदन करने के लिए वे लोग संन्यास लिया करते हैं । सत्य की प्राप्ति के लिए, निर्वाण की उपलब्धि के लिए वे संन्यास लिया करते हैं । धन्य हैं ऐसे संतजन जो विशुद्ध रूप से अपने आत्म-कल्याण के लिए, परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति के लिए, निर्वाण तत्त्व की उपलब्धि के लिए संन्यास लेते हैं। ऐसे संन्यासियों की चरण-धूलि भी परमात्मा
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