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तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। शिष्य प्रसन्न हुआ कि रास्तों के अँधियारों से कोई दिक्कत नहीं आएगी। दीपक लेकर गुरुजी को प्रणाम किया, आश्रम की तीन परिक्रमाएँ लगाईं और निकल पड़ा। कुछ दूर पहुँचा होगा कि अचानक सामने गुरु आ गये, उन्होंने जोर की फूंक मारी और जलता हुआ दीपक बुझ गया। गुरु ने जैसे ही दीपक बुझाया शिष्य ने तुरंत कहा - गुरुदेव ! आपने यह क्या किया ? गुरु ने कहा - अब तुम्हें इसकी ज़रूरत नहीं है। शिष्य ने कहा - भन्ते, मार्ग में अंधकार बहुत है । यह दीपक आपने ही थमाया था और मैं इसी के सहारे आगे बढ़ना चाहता था। गुरु ने तब भगवान बुद्ध का वही वाक्य दोहराते हए कहा - प्रिय वत्स, मैंने तुम्हें जलता हुआ दीपक थमाया था, लेकिन तुम मेरे सच्चे शिष्य हो तो मैं तुम्हें अंतिम उपदेश देता हूँ कि तुम किसी अन्य के दीप के सहारे अपने रास्तों को पार मत करो। अपने दीप स्वयं बनो । अपने रास्तों का निर्धारण स्वयं करो । मुझे जो ज्ञान देना था वह मैंने तुम्हें दे दिया लेकिन अब उस दीपक को हटा देना चाहिए और तुम्हें अपनी अन्तर्दृष्टि के जरिए, अन्तर्ज्ञान के जरिए, अन्तरप्रकाश के जरिए अपने साधना के पथ को पार करना चाहिए और अपनी मंज़िल हासिल करनी चाहिए।
कौन साधक कहाँ तक पहुँचेगा यह उस पर निर्भर करता है। केवल साधना के मार्ग को जान लेने मात्र से कुछ नहीं होगा। यह बोध रखना चाहिए कि हिमालय के नक्शे को देख लेने से हिमालय की यात्रा नहीं हो जाती। हाँ, हिमालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले हिमालय के नक्शे को भलीभाँति देख लेना आवश्यक होता है। अगर कोई महिला भोजन बनाने की कला जानती है तो इससे भोजन नहीं बन जाएगा, पेट नहीं भरेगा, पौष्टिकता नहीं आएगी। जीना हमारे जीवन का दूसरा पहलू होगा लेकिन साधना के मार्ग को समझना हमारे जीवन का पहला सोपान होगा। विधि का, मार्ग का ज्ञान होना उस विधि को आत्मसात करने का पहला चरण होता है।
महावीर ने मानव मात्र को आध्यात्मिक विकास की समझ देने के लिए आध्यात्मिक ज्यामिति स्थापित की और इसके लिए खास शब्द दिया – 'गुणस्थान' । इस शब्द को सुनने मात्र से ही हमें लगता है कि महावीर प्रत्येक व्यक्ति की चेतना को ऐसा आयाम देना चाहते हैं जो कि गुणवाचक है। याद रहे व्यक्ति के
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