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पर उसने तो जान-बूझकर मारा है। संत हँसे और कहने लगे - जब मैं उसे संयोग मान सकता हूँ तो इसे संयोग क्यों नहीं मान सकता । और दोनों को ही संयोग समझ लेने के कारण मेरे चित्त का क्रोध शांत हो गया, वैर-वैमनस्य की धारा शांत हो गई और इस तरह लाठी खाने के बाद भी सहज हो गया।
यह जो चित्त की समता है, समभाव है, इसी का नाम साधना है। हर साधक को समझ लेना चाहिए कि कोई परिस्थिति सदा एक-सी नहीं रहेगी। दुनिया बदलती है, प्रकृति बदलती है, परिस्थितियाँ, वस्तु और यहाँ तक कि व्यक्ति भी बदलता है। विचार, वाणी, नज़रिया बदलता है। लोग बदलते हैं, उनका व्यवहार बदलता है। यहाँ सब कुछ बदलता है। This too will pass. जब वह बीत गया तो यह भी बीत जाएगा। दुनिया में कुछ भी शाश्वत नहीं है, न समाज, न इन्सान, न धर्म । यहाँ सब कुछ बदलता है। हर युग में धर्म ने अपनी नई करवट बदली है। हर युग में हर पंथ और परम्परा ने कई परिवर्तन देखे हैं। अभी पिछले पच्चीस वर्षों की ही बात की जाए तो हमने देखा है कि केवल युवा पीढ़ी ही नहीं, बुजुर्ग भी बदले हैं। बुजुर्ग ही नहीं, संत भी बदल गए हैं, धर्म-परम्पराएँ बदल गई हैं, पूजा-पद्धतियाँ बदल गई हैं। रहन-सहन के तौर-तरीके बदल गए हैं, एक दूसरे को अभिवादन करने का तरीका बदल गया, खान-पान बदल गया। कोई कितना ही पुरातनपंथी क्यों न हो फिर भी बहुत कुछ बदल गया क्योंकि अनुयायी बदल गए हैं। इसलिए गर्व और खेद न हो क्योंकि सब कुछ बदलता है। प्रकृति शब्द का अर्थ ही परिवर्तन होता है। हर पल जहाँ कुछ-न-कुछ बदलता रहे वही प्रकृति । ऋतुएँ बदल रही हैं, दिन रात में ढल रहे हैं और रात दिन में बदल रही है, मौसम बदलते हैं, पेड़ों के पत्ते-फूल बदल रहे हैं, कोयल की आवाज बदल रही है। सब कुछ बदल रहा है। आप कभी भी नदी के एक ही पानी में हाथ न डाल पायेंगे । बहुत सा पानी बहा चला जा रहा है। इसलिए साधक जब धैर्यपूर्वक साधना करता है तो वह अपनी आती-जाती श्वासों पर ध्यान देता है। इस परिवर्तनशीलता को समझने के लिए साँस बहुत बड़ा माध्यम है। एक साँस आई कि नई प्रकृति का उदय हुआ, एक साँस ढल गई कि पुरानी प्रकृति का विलय हुआ। आती-जाती साँस बदल रही है। साँस चलती है तो साँस के साथ शरीर में संवेदनाएँ भी बदल रही हैं। कभी
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