________________
जैसे कोई किसी को गोद लेना चाहे तो बच्चे को ही लेगा बूढ़े को नहीं, ऐसे ही धर्म बूढ़े को गोद कैसे ले सकता है। धर्म भी यही चाहता है कि वह भी ऐसे ही किसी को गोद ले जो बचपन से ही या युवावस्था से ही ऐसे संस्कार जिए कि उसका बुढ़ापा सुखमय हो । बचपन अगर संस्कारशील है तो जवानी और बुढ़ापा दोनों ही उत्तम जीवन के आधार बनते हैं। लेकिन बचपन और जवानी ही दूषित रहे तो बुढ़ापा मंगलमय हो जाए इसकी संभावना कम है। शेष तो कभी भी शुभ हो सकता है। बुढ़ापे में भी लोग अच्छे रास्ते पर निकल पड़ते हैं। लेकिन हर आदमी यही सोचे कि बुढ़ापे में ही धर्म करूँगा और उसके परिणाम मिल जाएँगे तो ध्यान रखें कि बूढ़े को नहीं बच्चे को ही गोद लिया जाता है। बूढ़े धर्म की दहलीज पर आ ज़रूर सकते हैं। इतना अवश्य है कि वे क्रियामूलक धर्म तो कर ही नहीं पाएँगे। जहाँ तक विचारमूलक धर्म है बुढ़ापे में तो मोह-माया इतनी अधिक जग जाती है कि व्यक्ति के विचार निर्मोही बन ही नहीं पाते । रह-रहकर पत्नी, पोते-पोतियाँ, जमीन-जायदाद ये सब उसका पीछा करते रहते हैं। फिर बुढ़ापे में धर्म कैसे हो पाएगा ? रिटायर्ड लोगों से रिटायर धर्म ही होगा। ऊर्जावान धर्म को जीने के लिए खुद ऊर्जावान होना ज़रूरी है।
हम सभी जानते हैं दुनिया में जो भी महान संत हुए हैं वे कम उम्र में ही संन्यासी हो गए। बचपन से ही उनकी नींव बन गई, उनकी ज्ञान-गंगा को ऐसी धारा मिल गई कि वह जवानी तक पहुँचते-पहुँचते महान शंकराचार्य बन गया या आचार्य बन गया या बहुत अच्छा प्रवक्ता बन गया, लेखक या दार्शनिक बन गया। बचपन में ही कोई धार्मिक संस्कार या धर्म की शरण में आता है तो जवानी
और बुढ़ापा अधिक सुखमय होने की आशा है। सुखमय से तात्पर्य है - हम पाप नहीं करेंगे, अनैतिक नहीं होंगे, नैतिकता को जीवन के साथ जोड़कर रखेंगे, मर्यादाओं का सम्मान करेंगे, प्रेम को जीवन का आधार बनाएँगे । ऐसी स्थिति में जवानी और बुढ़ापा मर्यादा में रहने के कारण सुखमय होगा। बचपन और जवानी अगर दोनों ही गलत रास्तों पर चले गए तो बुढ़ापे में बीते हुए जीवन के लिए पछतावे के अलावा कुछ न होगा। वह भगवान से अपने कर्मों के लिए माफ़ी ही माँगता रहेगा।
धर्म हमें प्रेरणा देता है कि हम खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते
१४८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org