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संसारभी हो, संन्यासभी
संसार में व्यक्ति को नदी में चलती हुई नाव की तरह जीना चाहिए। नाव नदी से संस्पर्शित होती है, इसके बावजूद वह नदी में एक स्थान पर टिकी हुई नहीं रहती। जैसे नदी यात्रियों को एक किनारे से दूसरे किनारे पर पहुँचाया करती है ठीक वैसे ही संसार भी एक नदी या सागर की तरह होता है और शरीर किसी नौका के समान है, व्यक्ति की मेधा, उसकी प्रज्ञा पतवारों का काम करती है। ज्ञानी, मनीषी, ऋषि, मुनि इन्हीं मेधा और प्रज्ञा की पतवारों के सहारे ही इस संसार-सागर को पार किया करते हैं।
जो व्यक्ति नदी में नाव की तरह अपना जीवन जीता है वह संसार की लहरों का भी आनन्द लेता है और संसार से ऊपर उठकर मुक्ति का भी पथिक बन जाता है। मैं मानता हूँ कि प्रकृति ने या ईश्वर ने जिसे भी इन्सान के रूप में भेजा है उसे संसार का भी आनन्द लेना चाहिए और यहाँ से उसे जिस लोक की ओर जाना है उस अज्ञात लोक को, उस प्रकाश-लोक को, उस मुक्ति-लोक को अपनी नज़रों में बसाना चाहिए । इसलिए व्यक्ति के जीवन में संसार भी हो
और संन्यास भी। मैं वैदिक परम्परा से प्रभावित हूँ और इस परम्परा द्वारा दी गई व्यवस्था को आम मानव-जीवन के लिए व्यवस्थित व्यवस्था समझता हूँ। जिसमें वे कहते हैं कि व्यक्ति को चार आश्रमों के मुताबिक जीवन जीना
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