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संत अगर किसी घर में जाता है तो उसके सौभाग्य उदय हो गए, तक़दीर खुल गई कि आज संत-महाराज घर आए, उन्होंने आहार लिया । ऐसा क्यों माना जाता है ? क्योंकि संत तो चलता-फिरता तीर्थ है, ऐसा तीर्थ खुद चलकर तुम्हारे घर
आ गया। अन्य तीर्थों पर तो हमें चलकर जाना पड़ता है लेकिन संत ! खुद एक तीर्थ है जो चलकर हमारे घर आ गया। अगर संत घर पर आएगा तो लगेगा कि हमारे जीवन को सुकून मिला, हमारा जीवन, मकान, घर-आँगन धन्य हुआ कि आज हमारी इस गृहस्थी में कोई संत आए और उन्होंने यह धर्मलाभ दिया।
अगर कोई व्यक्ति धार्मिक स्थान पर अपनी सेवाएं दे रहा है तो वह भी किसी-न-किसी अंश में धर्म कर रहा है। धर्म तो यज्ञ की तरह है उसमें हम सभी को आहुतियाँ देनी पड़ती हैं। आहुतियों से ही तो धर्म का यज्ञ पूरा होगा । हम सभी का जीवन तो बीत रहा है। जितना जीवन सार्थक हो जाता है उतने दिन और रात भी सार्थक हो रहे हैं । गया हुआ जीवन तो लौटकर आएगा नहीं, लेकिन जो बचा है उसकी कोई गारण्टी नहीं है कि वह कितना होगा। इस बात का तो पता नहीं है कि समय कितने वर्ष तक जीवन देगा। इसलिए जो बीत गया उससे भी प्रेरणा लें कि अभी तक क्या कर पाए, उनका क्या परिणाम मिला, बीते हुए जीवन से संतुष्ट हैं या नहीं। या उससे कुछ प्रेरणा मिल सकती है कि भावी जीवन या वर्तमान जीवन को बनाने की फिर से कोशिश कर सकें।
मेरे पिताजी ने पचास वर्ष की आयु में संन्यास लिया था, मैंने पन्द्रहसोलह वर्ष की आयु में संन्यास लिया और मेरा छोटा भाई ग्यारह-बारह वर्ष की उम्र में ही संन्यस्त हो गया था – जागे तभी सवेरा। कोई नचिकेता, अतिमुक्त, प्रह्लाद या कोई ध्रुव छोटी उम्र में ही तैयार हो गए तो कोई तुलसीदास, वाल्मीकि, अंगुलीमाल जवानी में बदले, कोई बुढ़ापे में अपनी जिंदगी को बदलने में सफल हुए । जैनों के एक आचार्य हुए हैं कलापूर्णसूरिजी, उन्होंने बुढ़ापे में संन्यास लिया था और पूरे देश में अपने तप, त्याग, आचरण
और मर्यादाओं से आम जन को खूब प्रभावित भी किया। वे खूब जपे-तपे । कुछ ऐसे लोग भी हुए जो बुढ़ापे में संन्यस्त होकर भी अपने बुढ़ापे को धन्य कर लेते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि हर व्यक्ति बुढ़ापे में अपने को
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