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दूसरा संकल्प यह लेना होगा कि हम दूसरों को सम्मान देंगे, इज़्ज़त की भाषा बोलने का प्रयास करेंगे। ग़लत शब्द आ भी गए तो उन्हें दबाने की कोशिश करेंगे। तब भी ग़लत हो ही गया तो स्वयं को दंड दूँगा, दूसरे से क्षमा माँगूगा ( अगर संकल्प मज़बूत हो तो) अगर गलत कर बैठा तो व्रत रखूँगा । अगर ऐसी दो-चार बातें हम अपने साथ रखेंगे तो जागरूकता बढ़ेगी। इस तरह के लिये गये संकल्प हमारी बुराइयों, कमजोरियों को दूर करने में सहायक हो सकते हैं।
व्रत की बात व्यक्ति खुद ही सोचे क्योंकि उसका सबसे बड़ा परमेश्वर उसके अपने दिल में है । हर व्यक्ति की अन्तरात्मा उसे प्रेरणा देती है। असली धर्म भी वही है जो अन्तरात्मा से प्रेरित होता है । कोई कितना भी कह दे, पर कहने व सुनने से जीवन नहीं बदलता । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सुना व पढ़ा ही न जाए। पता नहीं कब कौन-सी बात अन्तरात्मा को छू जाए, वही प्रेरणा बन जाए। और जीवन में परिवर्तन घटित हो जाए। जब तक बात दिल को नहीं छूती, और दिल में बात नहीं उठती वह जीवन में चरितार्थ नहीं हो सकती ।
धर्म यही है कि हम अपनी-अपनी कमजोरियों को समझें और इन्हें बदलने का मानस बनाएँ, संकल्प लें और संकल्प पूर्ण न हो सके तो उसका प्रायश्चित करने का प्रयास करें। जब तक इस तरह की पूरी दृढ़ बात दिल में नहीं बिठाएँगे तब तक न तो परिवर्तन आएगा और न ही अपनी कमज़ोरियों को जीत पाएँगे। कमज़ोरियों पर विजय प्राप्त करने के लिए मन को मज़बूत बनाना होगा, बार-बार स्वयं को समझाना होगा, जीवन में लगने वाली ठोकरों से बार-बार प्रेरणा लेनी होगी तभी हम अपने जीवन में मिठास, निर्मलता लाने में सफल हो सकेंगे। कब सफल होंगे इसकी कोई गारण्टी नहीं है।
धर्म का दूसरा कार्य यह होगा कि अपने जन्मदाताओं के प्रति सम्मान का भाव रखें, उनकी सेवा को अपना सौभाग्य समझें । जिसने हमें जन्म दिया है अगर व्यक्ति उनके प्रति अपने फ़र्ज़ अदा नहीं कर सकता तो वह दूसरों के प्रति अपने फ़र्ज़ कैसे अदा करेगा। जो अपने माता-पिता की इज़्ज़त नहीं करता वह अपनी पत्नी की भी इज़्ज़त करेगा इसकी संभावना नहीं कही जा सकती। मातापिता जिन्होंने हमें जन्म दिया, शिक्षा दिलवाई, जीवन के अच्छे संस्कार दिए, अपने पाँवों पर खड़े हो सकें इसके लिए उन्होंने भरसक कोशिश की है,
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