________________
है। मैं अपने धर्म को समझता हूँ, आपको अपने धर्म को समझना चाहिए और हमें अपने-अपने धर्म का सम्मान करना चाहिए।
धर्म की बात करते हुए दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि जितना भी धर्म करें वह शुद्धता और पूर्णता के साथ होना चाहिए। कितना और कितनी देर तक धर्म किया यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि जितनी देर तक भी किया पूर्णता और शुद्धता के साथ किया। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति ने दिन भर में कितनी मालाएँ जपीं, फ़र्क इससे पड़ता है कि उसने जितनी मालाएँ जपी वह कितने मन से तथा शुद्धता और पूर्णता के साथ जपीं। क्या फ़र्क पड़ता है चार की बजाय आठ माला जप लो या चार की बजाय दो माला जप लो । धर्म चाहे थोड़ा-सा हो, पर पूर्ण हो। जैसे व्यक्ति अगर विटामिन की गोली खाएगा तो उसे दिन भर विटामिन की गोली खाने की ज़रूरत नहीं है। धर्म विटामिन की गोली है, उसे पूरी लो।
एक दिन में चौबीस घंटे होते हैं। इनमें से अगर हम एक घंटा भी शुद्धता और पूर्णता के साथ धर्म कर लेते हैं तो उसका प्रभाव पूरे तेईस घंटे बना रहेगा। उचटे मन से किया गया धर्म भी असफलता का आधार बन जाता है। हम छोटा-सा मंत्र बोलते हैं लेकिन उसे भी शुद्धता के साथ बोला जाए तो वह देवलोक में रहने वाले देवताओं को भी आकर्षित करने में समर्थ होता है। इन की दस-पंद्रह बूंदें भी एक मन तेल को सुगंधित करने में समर्थ होती हैं बशर्ते वह शुद्ध हो, पूर्ण हो। अगरबत्ती चार ही जलाई जाती हैं, लेकिन चार ही पूरे कमरे को सुगंधित कर देती हैं। इसलिए जब भी हम क्रियामूलक धर्म करने को आसीन हों, आचरणमूलक जब भी धर्म करें तो उसमें यह होश और बोध रहे कि जितनी देर भी करें शुद्धता और पूर्णता हो।
हमें यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि धर्म करने की कोई उम्र नहीं होती। व्यक्ति जब भी चाहे धर्म की शुरुआत कर सकता है। जागे तभी सवेरा । वह जब चाहे धर्म शुरू कर दे। बचपन में भी व्यक्ति धार्मिक हो सकता है, जवानी में भी धार्मिक हो सकता है और बढापे में भी धार्मिक हो सकता है। लेकिन कोई यह सोचे कि वह बुढ़ापे में ही धर्म करेगा तो उसे याद रखना चाहिए कि बुढ़ापे में धर्म की उम्मीद कम होती है, मोह-माया की उम्मीद बढ़ जाती है।
१४७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org