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मदद करे । गृहस्थ तो देने मात्र से धन्य होता है। पात्र-अपात्र का ज्यादा विचार मत करो। पात्र-अपात्र के बारे में ज्यादा सोचने लगे तो कभी किसी की मदद ही नहीं कर पाओगे। गृहस्थ का धर्म ही यही है कि वह दे। दानवीर कर्ण ने तो अपना अमर जीवन भी देना स्वीकार कर लिया। अपने कवच-कुण्डल देना भी कबूल कर लिया था। हम लोग किसी भूखे को तो कुछ दान दे सकते हैं। अत्यधिक वस्त्रों में से एक जोड़ वस्त्र का दान तो किया जा सकता है। अपने यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए तो मदद की जा सकती है। जो भी व्यक्ति मदद लेगा वह देने वाले के प्रति ऋण-भाव रखेगा। आभार-भाव रखेगा। देने वाला हमेशा ऊपर ही रहता है। ईश्वर हमेशा हमें देता ही है। इसलिए हम उसके सामने नतमस्तक हैं। अगर वह देना बंद कर दे तो फिर उसे सेठ या सांवरिया सेठ कौन कहेगा ? उसे जगन्नाथ कौन कहेगा। वह जगन्नाथ इसलिए है कि वह 'नाथ' है - दाता है। जो स्वर्गलोक में रहते हैं उन्हें हम 'देवता' कहते हैं। देवता क्यों कहते हैं क्योंकि वे देते हैं।
मेरे विचार से दुनियाँ में दो ही लोग होते हैं एक तो गरीब, दूसरा गरीबनवाज़ । या हम सब हैं या वह एक ऊपर वाला है। वह देता है इसलिए हम सबका भरण-पोषण हो रहा है। कोई यह कहे कि 'मैंने दिया-मैंने दिया'- कोई किसी को कुछ नहीं दे रहा, देने वाला केवल वह है। वह दे रहा है इसलिए हमें अन्न मिल रहा है, हमारा भरण-पोषण होता है, ख़ज़ाने भर रहे हैं। ऊपर वाला देता है इसलिए हमें भी आगे से आगे देते रहना चाहिए।
मेरा एक मंदिर में जाना हुआ। वहाँ देखा कि लोग मंदिर के बाहर लड्डू बाँट रहे थे। वे लोग मंदिर में लड्डू चढ़ाने को लाए थे, मंदिर में चढ़ाने के बाद जो बच जाते वह प्रसाद रूप में बाँट रहे थे। मैंने देखा कि एक महिला आई, उसने भी लड्डू चढ़ाए, बचे हुए बाँटे, पर हाथ में दो लड्डू और रह गए थे। उसने सोचा एक लड्डू मैं खा लूँगी, एक अपने बच्चे को दे दूंगी। ऐसा सोचकर वह चलने को उद्यत हुई कि एक भिखारिन अपने दो-तीन बच्चों को लेकर उस महिला के पास आ जाती है और कहती है - माँ जी, हमें भी प्रसाद दो । महिला सोचती है एक लड्डू इनको दे दूँ तो मेरा लड्डू इन्हें चला जाएगा, दूसरा अपने बच्चे को दे दूंगी। उसने एक लड्ड भिखारिन के हाथ में रख दिया। साथ वाले
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