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पुरुष कभी-कभार ही किसी प्रबल पुण्योदय के प्रभाव से मिल पाते हैं, उनका दर्शन होता है, सान्निध्य मिल सकता है। उनकी चरण - धूलि भी चंदन बनकर सौभाग्य का काम करती है। मैं ऐसे सद्पुरुषों का पुजारी हूँ।
भगवान महावीर कहते हैं - एक धर्म सरल होता है, एक धर्म पूर्ण होता है । सरल धर्म सद्गृहस्थों के लिए होता है और पूर्ण धर्म संतजनों के लिए होता है। महावीर ने दो शब्दों में गृहस्थ के धर्म को समझाने का प्रयत्न किया और वह है - १. दान तथा २. पूजा। संतों के लिए भी दो ही धर्म हैं - १. ध्यान और २. स्वाध्याय। अगर कोई गृहस्थ दान और पूजा यह दो कार्य करता है तो वह गृहस्थ नहीं श्रावक है। श्रावक का अर्थ है - सुनने वाला, महापुरुषों की वाणी को सुनने वाला, शास्त्रों को सुनने वाला। दूसरा है संतों का धर्म, श्रमणों का धर्म । श्रमण वह जो सुने हुए को जीता है, उस पर श्रम करता है, उस पर चलता है।
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श्रावक शब्द में तीन अक्षर हैं - श्र, व, क । 'श्र' का अर्थ है श्रद्धा, 'व' का अर्थ है विवेक और 'क' का अर्थ है क्रिया । अर्थात् श्रद्धा सहित, विवेकपूर्वक जो अपनी क्रियाओं को सम्पादित करता है उसका नाम है श्रावक । गृहस्थ और संन्यासी दोनों श्रेष्ठ हैं, किसी को भी खराब या गलत नहीं कहा जा सकता। आम तौर पर हम गृहस्थों को कोसते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। गृहस्थी में भी अगर व्यक्ति अपने धर्म, अपनी मर्यादा, अपने शील का पालन करता है तो गृहस्थ भी श्रेष्ठ होता है। और संन्यास लेकर संत बन जाने पर भी अपने नियम, कायदे-कानून, अपने धर्म-तत्त्व को अगर स्वीकार नहीं करता है, उनको अपने जीवन में नहीं उतारता तो उसका संतत्व अधम है । देह के मान से संभव है गृहस्थ का पलड़ा भारी रहे, लेकिन व्यक्ति की आत्मा, उसका अन्तर्मन, भीतर की सुवास, भीतर के प्रकाश को तौलना चाहेंगे तो शायद सद्संत का पलड़ा भारी रहेगा। इन्हीं गुणों से तो गृहस्थ और संन्यासी का फ़र्क़ नज़र आता है। जो ऊपर उठा, जो भीतर से खिला, जो मुक्ति का कमल बना, जो अनासक्त हुआ, जिसमें के प्रति प्रीत लगी वह व्यक्ति ही संत हुआ ।
प्रभु
एक संत से किसी ने पूछा- क्या आप मुझे याद करते हैं ? संत ने कहा हाँ, जब भगवान को भूल जाता हूँ तो तुम्हें याद कर लेता हूँ। | उसने पूछा - भगवान
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