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बच्चों ने भी तुरंत हाथ बढ़ाया और कहा सेठानी, सेठानी, मालकिन हमें भी लड्डू दीजिए। वह सोचने लगी अब क्या करूँ, प्रसाद घर ले जाऊँ या...तभी बच्चों ने फिर आवाज़ लगाई - हमें भी प्रसाद दो। उस महिला ने डिब्बा खोला और जो बचा हुआ लड्डू था वह भी उनके हाथ में पकड़ा दिया। भिखारिन ने देखा कि डिब्बा खाली हो गया था सो महिला ने फेंक दिया । भिखारिन आगे बढ़ी, झट से डिब्बा उठाया और अपने हाथ का लड्डू उसमें रखकर डिब्बा वापस लौटा दिया और बोली बहन यह डिब्बा आप वापस ले जाओ । महिला ने नहीं-नहीं, अब मैंने तुम्हें दे दिया है तुम ही लोग खा लो। भिखारिन ने नहीं माताजी, ऐसा नहीं हो सकता। हमने आपसे जो लड्डू लिया है वह इसलिए नहीं कि हम माँगकर खाते हैं । हमने भी इसे प्रसाद भाव से ही ग्रहण किया था। यह कैसे हो सकता है कि हम तो भगवान का प्रसाद लें और आप वंचित रह जाएँ। इसलिए आप एक लड्डू घर ले जाइए। आप भी बाँटकर खा लेना और हम भी एक लड्डू चारों मिल-बाँटकर खा लेंगे।
कहा
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भिखारियों के भीतर भी इस तरह के भाव होते हैं कि वे भी किसी को दें । मुझे तो लगता है भिखारी को भी अपने से ज्यादा जो दीन-दुःखी दिखते होंगे उन्हें वे ज़रूर ही कुछ- -न-कुछ देते होंगे। मैं तो मानता हूँ लोगों को देते ही रहना चाहिए। हमने वह पुराना गीत सुना है - तुम एक पैसा दोगे वह दस लाख देगा । एक बात तय है अगर हम लोग देंगे तो यही समझना कि हमारी ओर से कुछ भी देना ऐसा ही है जैसे उर्वरा जमीन पर बीजों को बोना । बीजों को बोएँगे तो सौ गुना फसलें लौटकर आएँगी। अगर हम कुछ नहीं देंगे तो पूर्व जन्म के कर्म यहीं घटकर हम खाली हाथ लौट जाएँगे। ईश्वर ने अगर हमें समर्थ बनाया है तो हमें असमर्थ की मदद ज़रूर करनी चाहिए। देने के लिए हम भूखे को भोजन, बीमार को दवा दे सकते हैं। अगर हमारे पास कोई हुनर है, किसी कला में निपुण हैं, किसी प्रकार की शिक्षा - ज्ञान अर्जित है तो यह भी हम दूसरों को दे सकते हैं कोई पशु वध के लिए ले जाया जा रहा है और हमारे प्रयत्न करने पर उसे जीवन-दान मिल सकता है तो ऐसा करने की पुण्य - भावना अपने हृदय में रखनी चाहिए और उस पशु को जीवन-दान दिलवाना चाहिए ।
एक समय था जब लोग दूसरों की सहायता करना सौभाग्य समझते थे।
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