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लेने मात्र से उस ज्ञान का फल मिलने लग गया। यह उनकी महान करुणा और हमारे लिए महान उपकार है । यह हमारे प्रबल पुण्योदय हैं कि उनके ज्ञान का प्रकाश हमें मिल गया । पुण्य का उदय तो हो गया कि महापुरुषों की वाणी सुनने को मिल रही है। अब आवश्यकता एक और पुण्योदय की है कि सुनने के बाद इस पराक्रम और पुरुषार्थ को जगाएँ कि जिस ज्ञान को उन्होंने पाया हम उसे जी सकें ।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ज्ञान देने की नहीं, जीने की चीज़ है। मैं अपना ज्ञान जीता हूँ इसलिए बोल रहा हूँ। जो ज्ञान केवल बोला जाता है और जीवन में नहीं जिया जाता वह ज्ञान न होकर भाषणबाजी होती है । राजनीतिज्ञों जैसी भाषणबाजी, जिनमें कोई दम नहीं होता ।
माना कि संसार में दुःख है और कुछ लोग इस दुःख को बढ़ावा भी दे रहे हैं - कोई आतंकवाद फैलाकर, कोई उग्रवाद फैलाकर, कोई बलात्कार करके, कोई अपराध करके । वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस दुःख को कम करने में लगे हैं - कोई संत बनकर, कोई सत्संग करके, कोई शिविरों का आयोजन करके, कोई सम्बोधि - साधना के जरिए, कोई विपश्यना के जरिए, कोई आर्ट ऑफ लिविंग के जरिए तो कोई वे ऑफ गुड लाइफ के जरिए, तो कोई राजयोग के जरिए तो कोई प्रेक्षा के जरिए। इस तरह कुछ लोग दुनिया के दुःख को दूर करने में लगे हुए हैं तो कुछ लोग दुःखों को बढ़ाने में लगे हैं । यह तो हम खुद ही सोच सकते हैं कि दुनिया में किस तरह के लोग चाहिए - शांति को बढ़ावा देने वाले या अशांति का विस्तार करने वाले ? पृथ्वी को उर्वरा करने वाले लोग ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं या उजाड़ने वाले लोग ज़्यादा महत्वपूर्ण है? ओसामा बिन लादेन ने जितना परिश्रम आतंक और उग्रवाद को बढ़ावा देने में किया उतना परिश्रम अगर अहिंसा और शांति के लिए करता तो आज तस्वीर दूसरी होती । वह भी किसी नोबल पुरस्कार का हकदार हो जाता । शायद उसे भी गांधी और गोर्बाच्योव की तरह याद किया जाता। अगर उसकी ऊर्जा रचनात्मक बन जाती तो वह आतंकवाद का नहीं अहिंसा का पर्याय बन जाता । जिन देशों के माध्यम से आतंकवाद की पाठशालाएँ चल रही हैं अगर वे अहिंसा की पाठशालाएँ चलाते तो दुनिया से दुःख दूर हो जाता । और वे देश जो अस्त्र-शस्त्र और हथियारों पर, परमाणु बमों पर जितना खर्चा कर रहे हैं उसका आधा खर्च भी
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