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और मंदिर बनाना ही पुण्य नहीं हैं क्योंकि रोज-रोज तो ये कार्य होते नहीं हैं। रोज-रोज तो इस तरह धन खर्च नहीं किया जा सकता लेकिन भावों को ही शुभ रख लेना हमारे जीवन का महान पुण्य है । मन में दूसरों के लिए दुर्भावनाएँ रखना ही पाप है। अगर भाई-भाई साथ रहते हों तो यह पुण्य है और अगर वे एकदूसरे के प्रति गलत भाव, वैर-वैमनस्य, ईर्ष्या रखते हैं तो साथ में रहना भी पाप है। यदि हम महावीर के शब्दों पर गौर करें तो जानेंगे कि सास-बहू का, भाई-भाई का एक-दूसरे के प्रति शुभ, अच्छे भाव होना यह जीवन का पुण्य ही कहलाएगा।
एक बहिन ने मुझसे कहा कि उसके सास-ससुर उसके लिए देवता के समान आदरणीय हैं। आप तो माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहते हैं, पर हमारे घर में तो सास-ससुर ही माता-पिता के समान हैं। वे हम बच्चों का पूरा मान और सम्मान करते हैं। वे हमारे लिए देवता की तरह आदरणीय हैं । मैंने कहा - बहिन, वह क्या कारण है जिससे आप अपने सास-ससुर को देवता के समान सम्माननीय कह रही हैं। उसने बताया - रहते तो वे अपने बड़े बेटे के यहाँ हैं। दस महीने उनके पास रहते हैं और दो महीने हमारे यहाँ रहते हैं। मैंने कहा - इसीलिए आप उन्हें आदरणीय कह रही हैं, क्योंकि आपके पास तो दो महीने ही रहते हैं । बहिन ने कहा - प्रभुवर, ऐसी बात नहीं है, बड़े बेटे के पास जहाँ रहते हैं वहीं पास में मंदिर है, स्थानक है, गुरुजनों का निवास रहता है तो उन्हें पूरा धर्म-लाभ मिल सके इसलिए वहाँ रहते हैं। हम लोग तो छोटे नगर में रहते हैं वहाँ हमारे घर के पास न मंदिर की व्यवस्था है, न स्थानक उपाश्रय है कि वहाँ जाकर वे अपनी धर्म-आराधना कर सकें। लेकिन जब वे दो महीने के लिए हमारे यहाँ आते हैं तो हम सब लोग साथ रहते हैं। उनके आने के दिन से ही हमें कुलदेवता के आगमन का अहसास हो जाता है। और वे घर में मेहमान की तरह नहीं आते । सासू जी आते ही रसोई सँभाल लेती हैं और कहती हैं - अब हम आ गए हैं दो महीने तक तुम्हें रसोईघर में आने की जरूरत नहीं है। अब तुम आराम करो । मैं कहती हूँ - मम्मीजी आप यह कैसी बात कर रही हैं, मैं बहू हूँ
और बहू के होते हुए सास खाना बनाए यह तो शोभनीय नहीं है । तब वे कहती हैं - बेटा, दस महीने तुम मेरे बेटे को सँभालती हो, कम से कम दो महीने तो मैं भी सँभाल लूँ। और अपने हाथों से तुम दोनों को गरम-गरम खाना खिला दूँ।
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