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और प्रेम का गुरु हूँ। हम सब एक-दूसरे को खूब प्रेम दें, मिठास दें। पर अगर तुम ही कदम बढ़ाने को तैयार नहीं हो तो अगला कहाँ से और कैसे आगे बढ़ेगा। वह तो अड़ियल है ही, पर हम साधक होकर भी अड़ियल हो गए तो हमारी साधना कैसी ? साधक की तो कसौटी ही यही है कि वह व्यावहारिक जीवन में स्वयं को स्नेहिल बनाए।
___ करुणापूर्ण हृदय के साथ हमारे द्वारा मदद का कोई-न-कोई हाथ आगे ज़रूर बढ़े। कुल मिलाकर हमें अपनी भावधाराओं को शुभ और मंगलमय बनाना है, निर्मल और पवित्र बनाना है। इसके लिए स्वनिर्णय लेने होंगे कि स्वयं की शुभ भावधाराओं के लिए क्या करना चाहिए और अपनी प्रेक्टीकल लाइफ में किन-किन बातों को जोड़ने की जागरूकता, सचेतनता और अधिक बनानी चाहिए।
भावे भावना भाविए, भावे दीजे दान ।
भावे जिनवर पूजिए, भावे केवलज्ञान ।। कहते हैं जैसी आपकी भावना होगी, प्रभु की मूरत भी वैसी ही दिखाई देगी। हम लोग एक पुराना गीत गाते हैं - "थाली भरकर लाई रे खीचड़ो, ऊपर घी री बाटकी। जीमो म्हारा श्याम धणी जिमावे बेटी जाट की।"
जाट की बेटी कहती है - भगवानजी, आप आ जाइए और जीम के चले जाइए। भगवानजी भी फ़िक्र में पड़ गए होंगे कि रोज़ तो इसका काका-बाबा जिमाता है और आज यह जिद पर आ गई है। गीत के आगे की पंक्तियाँ हमें बताती हैं - "बाबो म्हारो गाँव गयो है, ना जाणे कद आवेला, बाबे रे भरोसे सांवरिया भूखो ही रह जावेला।" - अगर तुम मेरे बाबा के भरोसे रह गए तो भूखे ही रह जाओगे इसलिए जल्दी-जल्दी आ जाओ। बाबा कह के गया है कि प्रसाद पहले प्रभु को चढ़ाना उसके बाद तुम खाना । वह दो-तीन दिन में दूसरे गाँव में जाकर वापस आ जाएगा। सांवरिया तू आ जा। सांवरिया नहीं आया, नहीं आया तो सोचने लगी - बाबा क्या-क्या करते थे। उसे याद आया कि बाबा आगे खाट लगाते थे तब प्रसाद चढ़ाते थे। वह खाट के पास गई पर खाट उठ न पाई तो सोचा परदा कैसे लगाऊँ । बच्ची थी खुद ही जाकर उल्टी खड़ी हो गई और लहंगे को दोनों हाथों से फैला दिया और कहा - प्रभु जी लो यह मैंने
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