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पोता गेंद से खेल रहा था कि गेंद उछलकर मिट्टी की थाली में लगी और थाली टूट गई । दादी माँ रोने लगी कि एक ही तो थाली थी उसमें जैसे-तैसे वह भोजन कर लेती थी। अब दूसरे दिन से वह भोजन किसमें करेगी। पोते ने पूछा – दादी माँ, क्या आप इसमें खाना खाती हैं ? दादी ने कहा - हाँ बेटा, मेरे भाग्य ही ऐसे हैं कि मुझे इसमें खाना खाना पड़ता है। दाँत भी टूट गए हैं पर सूखी रोटी के टुकड़े खाने पड़ते हैं। पोते ने कहा - दादी माँ, आज तक तुमने जो खाया सो
खा लिया, पर कल से तुम्हें इस मिट्टी की थाली में खाना नहीं खाने दूंगा। दादी ने पूछा - तो क्या हाथों से खिलाओगे ? नहीं, दादी माँ ! कल देखो क्या होता है - पोते ने कहा।
उसने झटपट वे मिट्टी के टुकड़े इकट्ठे किए, कपड़े में लपेटे और अपनी माँ के पास जाकर कहा - मम्मी, जरा अलमारी की चाबी देना । माँ ने बेटे को चाबी पकड़ा दी। बच्चे ने अलमारी खोली और मम्मी जहाँ अपने गहने रखती थी उस लॉकर में उस गठड़ी को रख दिया। साँझ को मम्मी को किसी किटी पार्टी में जाना था, और जब गहने निकालने के लिए लॉकर खोला तो उसमें कपड़े की गठड़ी मिली। उसे देखकर सोचा कि जरा देखू तो इसमें क्या है। गठड़ी खोली तो उसमें मिट्टी की थाली के टुकड़े मिले । पति से पूछा – ये किसने रखे। पति ने कहा - उसे नहीं पता। बेटे से पूछा - यह करामात किसने की है ? बेटे ने कहा - माँ ! यह गठड़ी मैंने ही रखी है। माँ तो बौखला गई। उसने सटाक् से बेटे के गाल पर चाँटा जड़ दिया कि बेवकूफ यह तूने यहाँ लाकर रख दी। बच्चे ने कहा - मम्मी, इतना बुरा क्यों मानती हो । तुम भी तो एक-न-एक दिन बूढ़ी होओगी और तब इन्हें चिपकाकर तुम्हें इसमें खाना खिलाऊँगा। माँ ने कहा - क्या कहना चाहते हो तुम? बेटे ने कहा - माँ मैं कुछ नहीं कहना चाहता, मैं तो बस इतना ही बताना चाहता हूँ कि कुदरत वही लौटाती है जो तुम बीज बोते हो।
अरे भाई! जब वही लौटकर आने वाला है तो क्यों न ऐसे शुभ-भावना के बीज बोएँ कि परिणाम भी शुभ ही आए। जब भी मन में कुछ गलत पनपने लगे तो अपने आप से कहें - नहीं, ऐसा सोचना मेरे लिए पाप है, मुझे अपने मन की धाराओं को बदल लेना चाहिए। हम लोग जब ध्यान करते हैं तब अपने आप
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