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तो इस अतिरिक्त धन को किसी शुभ कार्य में, गौशाला आदि में दे दें । जीवदया के निमित्त इस धन को खर्च कर सकते हैं । और अगर आपको पता चल जाए कि अमुक व्यक्ति भूल गया तो आपका ईमान इसी में है कि आप उस रकम को लौटा दें।
ऐसा हुआ, बालोतरा के एक सेठ हैं श्री घेवरचंदजी नाहटा - उन्होंने यहाँ संबोधि धाम में मंदिर का शिलान्यास किया और कहा कि वे सवा लाख रुपये मंदिर-निर्माण में समर्पित करेंगे। संयोग से हम निकट ही नाकोड़ा तीर्थ में थे । वे गांधीधाम में रहते हैं। वे नाकोड़ा तीर्थ आए हुए थे और कुछ रुपये देते हुए कहा कि इन्हें हम अपने मंदिर के ट्रस्ट में भिजवा दें। उस समय हमारे सामने जो कर्मचारी था उसे रुपये दे दिए कि पहुँचा देंगे। वह कर्मचारी पैसे गिनने लगा । पैसे गिने तो पता चला कि वे नोट सौ के नहीं हजार के नोट दादाजी देकर गए हैं। तुरंत उन्हें फोन किया कि आप गलती से सौ के बजाय हजार रुपये के नोट का बंडल दे गए हैं। वे वापस भी आए और कहने लगे - गलती तो हो गई पर धर्म के निमित्त मैं ले आया हूँ । इसलिए अब वापस घर में तो नहीं ले जाऊँगा यह धन । गलती कुछ भी रही हो, पर अब यह घर में वापस नहीं जाएगा । तब निर्णय हुआ कि जिस गाँव में वे रहते हैं, वहाँ भी एक मंदिर बना दिया जाए और अतिरिक्त धन वहाँ खर्च किया जाए। शुभ लाभ, शुभ खर्च । मैं शुभ-शुभ की बात करता हूँ, शुभ सोचने, कहने, शुभ शुभ बोलने और शुभ करने की बात करता हूँ। जितना हमसे हो जाए उतना ही अच्छा है ।
ईमानदारी से देखें तो हम लोग दान नहीं करते हैं । स्वेच्छा से तो शायद ही करते होंगे। मज़बूरी में ज़रूर कर देते हैं कि अब समाज के लोग आ गए हैं तो देना ही पड़ेगा या साधु - महाराज - संतों के इशारे पर धन भेंट करना होता है । लेकिन स्व-प्रेरणा से, स्व-इच्छा से दान देना महत्त्वपूर्ण है फिर चाहे वह दो मुट्ठीआटा ही क्यों न हो। हमारा चातुर्मास भीलवाड़ा में था, वहाँ आजाद चौक में प्रवचन देने जाते थे। रास्ते में देखते कि एक पेन्टर की दुकान थी, वह प्रतिदिन दो-ढाई सौ रुपये के सिक्के लेकर बैठ जाता और वहाँ भिखारियों की लाइन लग जाती, वह हरेक को एक-एक रुपया देता जाता, न कम न अधिक । यह हुआ स्वेच्छा से दान। दूसरों की प्रेरणा से नहीं, खुद के द्वारा की गई दया । शुभ लाभ
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