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भूख लग रही है तो कभी निवृत्ति की शंका हो रही है। जो लोग खाने के प्रति आग्रहशील हैं वे सोचें क्या खाया हुआ शाश्वत रहा है ?
हमें हमारे चित्त में जो परिवर्तन होते हैं उनके अहसासों से मुक्त होकर सहजता में जीना सीखना होगा। एक दफा मैंने अपनी माँ से पूछा - माँ, तुम्हें जिंदगी में कभी गुस्सा आया ? माँ हमेशा यही कहती - गुस्सा आता तो था पर इसलिए नहीं किया क्योंकि बड़े डाँट देते तो सहजता से इसलिए लेती कि बड़ों ने डाँटा तो उन्हें कहने का अधिकार है और छोटों पर गुस्सा इसलिए नहीं कर पाई कि सोचती बच्चे हैं, बच्चों से गलती नहीं होगी तो किससे होगी । बस दोनों ही परिस्थितियों को समझते ही चित्त सहज हो जाता।
यह जो चित्त की सहजता है इसी का नाम सामायिक है, साधना, मुक्ति तथा मोक्ष है। अगर आपको लगता है कि कहीं स्थान विशेष में मोक्ष है कि व्यक्ति संसार से मुक्त हुआ और जाकर कहीं बस गया तो मैं यही कहँगा कि बसना ही तो है, इस संसार में बसे तो भी संसार है और उस संसार में बसे तो भी संसार है। फिर चाहे संसारियों का संसार हो या मुक्त जीवों का । संसार तो दोनों ही हैं। इस झंझट को छोड़ो, बस अगर हम इस संसार में हैं तो भी मुक्ति को जिएंगे और उस संसार में जाएँगे तो भी मुक्ति को जीएँगे। बस, आनन्द-दशा रहनी चाहिए। चित्त में प्रमोद भाव, प्रसन्नता रहनी चाहिए। तभी तो बुद्ध ने कहा - अपनी वीणा के तारों को न तो ज़्यादा ढीला छोड़ो न ज़्यादा कसो। अर्थात् अपनी जीवन की वीणा को साधो, अपने मन को साधो ।
मनड़ो मेरो लागो यार फकीरी में। जो सुख पायो रामभजन में सो सुख नाहीं अमीरी में। हाथ में लोटा बगल में सोटा, चारों दिशि जगीरी में। प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनि आई सबूरी में।
आखिर यह तन खाक मिलेगा कहाँ फिरत मगरूरी में।
कहत कबीर सुनो भई साधो साहब मिले सबूरी में। चित्त में सब्र, धैर्य, शांति, प्रसन्नता, प्रमोद - भाव धारण करो । फ़क़ीर बना नहीं जा सकता है कि घर छोड़कर निकल जाएँ, पर फ़क़ीर हुआ जा सकता है। फ़क़ीरी और संन्यास कोई वस्तु या बाना नहीं है कि जिसे सब लोग धारण
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