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देखकर चित्त में कहीं कोई हलचल नहीं होती। यह जो मन के सरोवर का शांत और निस्तरंग होना है इसे मैं समाधि कहता हूँ । इसे आत्म - दशा कहता हूँ, आत्मवान होना कहता हूँ । जहाँ बाहर की उठा-पटक चित्त को प्रभावित न कर सके उस अवस्था को मैं अनासक्त योग कहता हूँ ।
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गीता के कृष्ण ने इस अनासक्ति पर बहुत जोर दिया है । जितेन्द्रियों में भगवान महावीर ने इस पर अधिक ज़ोर दिया है कि तुम जीत जाओ क्योंकि परिस्थितियाँ बदलेंगी। महावीर ने दुनिया को देखा। कहा जाता है कि जब बुद्ध और महावीर पैदा हुए तो जन्म के साथ ही भविष्यवक्ताओं ने घोषणा कर दी थी कि ये राजकुमार बड़े होकर महान चक्रवर्ती सम्राट् बनेंगे या फिर तीर्थंकर और बुद्ध पुरुष बनेंगे। उनके पिताओं ने उन लोगों के लिए हर तरह की सांसारिक सुविधाएँ प्रदान कीं, लेकिन दुनिया में दिखने वाला दुःख उनसे अछूता न रह पाया और दुनिया के दुःख ने उन्हें पसीज दिया । वे करुणार्द्र हो गए। पैदा तो राजकुमार के रूप में हुए, लेकिन आगे जाकर वे करुणावतार बन गए । वे सोचने लगे कि दीन-दुःखियों के दुःख कैसे दूर किए जाएँ । दुखियों का दुःख वही दूर कर पाएगा जो उनके दुःख को समझेगा। अगर हम किसी को दुःखी देख रहे हैं तो यह न समझें कि वह दुःखी है, बल्कि खुद को वहाँ ले जाकर स्थापित कर दें, फिर देखें । तब पाएँगे कि वह दुःख उसका नहीं हमारा दुःख बन चुका है। तब आप वह सब कुछ करना चाहेंगे जो अपने दुःख को दूर करने के लिए कर सकते हैं । वह दूसरा न लगेगा। इसीलिए महावीर ने कहा कि अगर तुम दूसरे की हिंसा करते हो तो यह उसकी नहीं तुम्हारी हिंसा है। जब दूसरे को प्रेम करते हो तो वह दूसरों को नहीं स्वयं को प्रेम करना हुआ ।
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महावीर के शब्द हैं - जीव वहो अप्प वहो, जीवदया अप्पणो दया होई - जीव का वध अपना ही वध है और जीव की दया अपनी ही दया है। इसलिए दूसरों से द्वेष करोगे तो स्वयं से ही द्वेष करना कहलाएगा और दूसरों से प्रेमचर्या करोगे तो स्वयं से ही प्रेम करना कहलाएगा। इसीलिए महावीर ने
कहा जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो, जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी मत चाहो । यही महावीर के धर्म का सार है, सिद्धान्तों का अनुशासन है ।
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