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करने लग जाएँ। यह तो मानसिक अवस्था है जिसे हर व्यक्ति को धारण कर लेना चाहिए। इसीलिए जब पढ़ता कि वैदिक युग में संतों, ऋषियों, मुनिमहात्माओं के बच्चे थे तो चौंक पड़ता था कि उनके पत्नियाँ थीं तब भी उन्हें ऋषि, मुनि-महात्मा की संज्ञा दी गई। उस समय तो बड़ा आश्चर्य होता था लेकिन धीरे-धीरे इस बात की समझ आ गई कि संन्यास और ब्रह्म-ज्ञान का संबंध पति-पत्नी या बच्चों से नहीं है बल्कि इसका संबंध व्यक्ति के अन्तर्मन से है। मानसिक अवस्था का नाम संन्यास है।
गांधीजी के पास एक संत पहुँचे और कहने लगे - महात्मन् ! मैं भी देशसेवा में लगना चाहता हूँ। आप भी देश-सेवा और आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं भी आपके समान ही कार्य करना चाहता हूँ। आप मेरा मार्गदर्शन करें । गांधीजी ने बहुत मजेदार बात कही – उन्होंने कहा - अगर आप देश सेवा करना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको यह संन्यास का बाना उतारना होगा। संत महाराज चौंके कि गांधीजी यह क्या कह रहे हैं। फिर भी संत ने कहा - अगर मेरे पास यह बाना रहेगा तो लोग मुझे ज़्यादा चाहेंगे और मैं अधिक से अधिक देश-सेवा कर सकूँगा, लोगों से और अधिक सहायता करवा सकूँगा। यह तो सहायक बनेगा । तब गांधीजी ने कहा - आप पहले यह तय कर लीजिए कि आप देश की सेवा करना चाहते हैं या खुद की सेवा करवाना चाहते हैं। अगर आप संन्यास का बाना पहने रहेंगे तो दुनिया आपकी सेवा करेगी और यह बाना उतार देंगे तो आप देश और दुनिया की सेवा कर पाएंगे।
मुझे नहीं पता कि उन्होंने संन्यास का बाना उतारा या नहीं, पर इतना अवश्य जानता हूँ कि हर संत और हर व्यक्ति को यह बोध रखना चाहिए कि संन्यास मानसिक अवस्था है, मानसिक वस्तु है। यह भीतर में घटित होना चाहिए । क्या फ़र्क पड़ेगा अगर तुमने कुछ छोड़ा या तुमने कुछ खा लिया। फ़र्क वहाँ है जहाँ तुम्हें उस वस्तु को खाने की ललक पैदा हुई या मन सहज रहा। 'मन लागो यार फकीरी में'- मन फ़क़ीरी में लग जाना चाहिए, मन मस्त हो जाना चाहिए। मन अगर यह समझ ले कि यहाँ सब परिवर्तनशील है तो उठा-पटक बंद हो जाती है। प्रशंसा और निंदा को सुनकर मन स्वतः ही समभाव में आ जाता है। संयोग और वियोग की अनुकूलता और प्रतिकूलता को
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