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तो केवल माध्यम हूँ। वह प्रणाम कर रहा है इसलिए आदरणीय नहीं हूँ । भीतर आदर पैदा हुआ है इसलिए वह प्रणाम अर्ज़ कर रहा है।
इसके विपरीत अगर वह अपना जूता दिखा दे तो भी बुरा मत मानना । वह जूतों की माला भी पहना दे तो संत - प्रकृति का बन जाना । साधु - प्रकृति चौबीसों घंटे नहीं रखी जा सकती लेकिन अपमानित होने की अवस्था में साधु - प्रकृति का स्मरण कर लें। मान लें कि इस माला में दस जूते हैं और मैं उन सभी को प्रणाम करते हुए समझता हूँ कि इस बहाने मुझे एक साथ दस लोगों को गले लगाने का सौभाग्य मिला । अथवा समझें कि ये भी प्रभु की ओर से भेजा गया संदेश है, इसे सहजता से स्वीकार कर लेना । यह सहजता ही साधना है शेष तो सभी चीज़ें चित्त को उद्विग्न करेंगी। सहज रहना ही हर परिस्थिति को स्वीकार कर लेना है। साधना का मर्म ही सहजता है । सुख का मर्म भी सहजता है ।
मुझे याद है - एक संत रास्ते से चला जा रहा था, तभी उसका विरोधी व्यक्ति आया और संत की पीठ पर जोर से लाठी का प्रहार कर दिया। संत गिर पड़ा। विरोधी ने इतनी जोर से मारा था कि लाठी भी हाथ से छूट गई। उसे लगा अगर मैंने लाठी उठानी चाही तो संत भी कमजोर नहीं है वह भी प्रहार कर सकता है तो वह लाठी छोड़कर भागा। संत खड़ा हुआ, लाठी उठाई, कुछ कहने को हुआ कि उसकी नज़र ऊपर गई । उसने लाठी को देखा और कहा - अरे भाई, तुम जो भी हो वापस आकर अपनी लाठी ले जाओ। पास खड़े एक मुसाफ़िर ने संत को देखा और पूछा - महाराज ! इसने आपको लाठी मारी। क्या आपको गुस्सा नहीं आया? आप तो उसे मारने की बजाय लाठी ही लौटा रहे हैं ।
संत हँसे और कहने लगे जो बात तुम कह रहे हो वही बात मेरे दिल में भी आई लेकिन जैसे ही लाठी उठाकर खड़ा हुआ मेरी नज़र ऊपर की ओर गई। मैंने देखा कि यहाँ एक पेड़ खड़ा है तो मुझे लगा कि मैं उस युवक के पीछे भागूँ, उसे लाठी से मारूँ उससे पहले ही मेरी प्रज्ञा जग गई और मैं सहज हो गया। मैंने स्वयं से कहा - संत जरा सोच, काश तुम इस पेड़ के नीचे से गुजर रहे होते और पेड़ की एक डाल तेरी पीठ पर आकर गिर जाती तो क्या तुम पेड़ को मारने के लिए मचलते ? मुझे लगा यह लाठी नहीं, पेड़ से ही किसी टहनी का मेरी पीठ पर गिरना हो गया। मुसाफ़िर ने कहा - महाराज ! वह तो संयोगभर कहलाता,
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