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संयमी है। क्योंकि जीवन की नब्बे प्रतिशत समस्याओं को वह अपनी इस एक ज़बान के जरिए सुलझा लेता है। यह बहुत बड़ा संयम है।
अभी मैंने अखबार में पढ़ा कि एक ही धर्म के अलग-अलग परम्पराओं के दो संतों में किसी धर्म-स्थान पर रहने के लिए कहा-सुनी हो गई और कहा-सुनी इतनी बढ़ गई कि अखबारों को विज्ञापनों के माध्यम से लाखों रुपये की आमदनी हो गई क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने समर्थन में विज्ञापन देने लगे। दोनों सड़क पर आ गए, धर्म सड़क पर आ गया। केवल दो परम्पराएँ नहीं, पूरा धर्म सड़क पर आ गया । तब मुझे लगा कि ये कैसे संत हैं जिनमें इतनी भी समझ और शांति नहीं है । पहले के जमाने में तो लोग घर छोड़ कर जंगलों में चले जाते थे और इन लोगों को धर्म स्थानकों को छोड़कर बाहर निकलना मंजूर नहीं हो रहा है। दोनों ने अपने ही आग्रह रखे, दोनों ही अपने अनेकांत धर्म को भूल गए, दोनों ही अपने महावीर प्रभु को भूल गए और अपनी छिछली भाषा में आमने-सामने आ गए। केवल कपड़े बदलकर महाराज बनने से क्या होता है ? असली साधुता वाणी में आनी चाहिए।
मर्यादित बोलना भाषा समिति है और प्रत्येक साधक को, संत को, गृहस्थ को इसका विवेक रखना चाहिए कि वह बोलते समय मर्यादा की भाषा बोले। बड़े का मान-सम्मान, दूसरे का मान-सम्मान, हमारे पड़ोस में रहने वाले का मान-सम्मान । याद रखें - घमण्डी का खुदा नहीं होता, ईर्ष्यालु का कोई पड़ोसी नहीं होता, पर क्रोधी और टेढ़ी भाषा बोलने वाला खुद का भी नहीं होता, वह दूसरों का क्या होगा । भाषा शिष्ट हो, इष्ट हो, मिष्ट हो ।
कहते हैं : महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस जो नब्बे वर्ष की उम्र में समाधि लेने जा रहे थे, अपने सारे शिष्यों को एकत्रित किया और मुँह खोलते हुए पूछा - मेरे मुँह में क्या है ? अब नब्बे वर्ष के वृद्ध के मुँह में क्या हो सकता है ? जीभ ही ! शिष्यों ने भी यही ज़वाब दिया - गुरुदेव आपके मुँह में तो केवल जीभ है। पूछा - मुँह में जीभ क्यों है ? उत्तर मिला - जीभ तो नरम होती है इसलिए अभी तक है। गुरु ने पूछा - मुँह में और क्या होता है ? तुम्हारे मुँह में क्या है ? उत्तर आया - दाँत ! पुनः प्रश्न उठा - तब मेरे मुँह में दाँत क्यों नहीं हैं ? शिष्यों ने कहा - दाँत कड़क होते हैं इसलिए चले गए। कन्फ्यूशियस ने
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