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अनुगमन करता है। यह एक विराट सत्य है कि व्यक्ति सबकुछ छोड़कर जा सकता है, यहाँ तक कि पत्नी को तलाक दे सकता है, बच्चों को घर से निकाल सकता है, मरकर शरीर को भी छोड़कर जा सकता है पर कर्म उसके साथ ही जाते हैं। जैसे हमारा साया हमारे साथ चलता है वैसे ही हमारे कर्म भी हमारे साथ चलते हैं। इसलिए दूसरे को निमित्त बनाना ग़लत है कि उसकी वजह से जीवन में दुःख है, बल्कि स्वयं के कारण जीवन में दुःख है यह कहना ज़्यादा ठीक होगा। यह सोचना ग़लत है कि वह है इसलिए आपकी प्रगति नहीं हो रही है वरन् आपके अपने कर्म ही इतने प्रबल नहीं रहे कि आपकी प्रगति हो सके। आपकी गति और दुर्गति का आधार कोई दूसरा नहीं है। दूसरे के होने या न होने से आपकी हक़ीक़त में फर्क नहीं पड़ता है। आपके स्वयं के पुण्य प्रबल होने चाहिए । कोई राजा है और कोई रंक तो सबके पीछे खेल उन्हीं कर्मों का चलता है। यही कारण है कि समुद्र-मंथन में विष्णु को लक्ष्मी और शिव को विष मिलता है। सबकी अपनी किस्मत है, कर्म भी अपने हैं, प्रारब्ध अपना है। बैकुंठ में आराम से रहने के बावजूद विष्णु को राम के रूप में अवतार लेकर जंगलों की खाक छाननी पड़ी । दुनिया के महादेव कहलाने के बावजूद हिमालयपति शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षा माँगने निकलना पड़ता है। ये कर्म हैं।
महावीर की नज़र में ये कर्म इसलिए हैं कि हमारे जीवन में, हमारे संबंधों में, हमारे अन्तर्मन में राग और द्वेष के पुनः पुनः जगने वाले संकल्प और विकल्प हैं। क्रिया इन्सान को नहीं बाँधती है, मन में पैदा होने वाले राग और द्वेष के संकल्प और विकल्प ही उसे बाँधते हैं। इसीलिए कहते हैं - मन चंगा तो कठौती में गंगा । मन ठीक है तो सब ठीक है। मन अगर मोह में पड़ गया तो मन मंदिर न रहा, मदिरालय बन गया । मन अगर निर्मोही हो गया तो तुम चाहे जंगल में रहे या नगर में कोई फ़र्क न रहा । राग और द्वेष मूल कारण हैं। संन्यास लेकर अगर कोई राग और द्वेष करता है तो संन्यस्त होना निरर्थक है। संन्यास लेकर भी राग और द्वेष के अनुबंध अपने साथ बाँधकर रखे तो संन्यास लेने का क्या अर्थ है ? अगर राग-द्वेष को न जीता तो संन्यासी बनने का क्या मतलब ? माना कि संन्यास महत्त्वपूर्ण है, यह तो इस बात का प्रमाण है कि अब उसने राग-द्वेष को जीतने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है । वीतराग
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