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कैसा । यह भी उसे ही समर्पित । तब से मैं अपने पात्र में आने वाली खाद्य चीज के लिए इन्कार नहीं करता हूँ और खाते समय हाथ जोड़कर प्रभु को समर्पित कर देता हूँ। मैं का भाव नहीं रखता हूँ, वह खाना भी श्रीप्रभु को अर्घ्य के रूप में चढ़ा देता हूँ। जब तक पेट तृप्त होता है खा लेते हैं। किसी भी चीज के लिए इन्कार नहीं कि यह अच्छी लगती है या नहीं पसंद है । इन्कार इसलिए नहीं कि वह वस्तु राग-द्वेष, संकल्प - विकल्प का कारण बनती है, इसलिए उसका भी मजा ले लेते हैं। अनुकूल रहे या प्रतिकूल इन्कार नहीं करेंगे। यह तरीका है अपने संकल्प-विकल्पों को कम करने का ।
सहजता से जीवन जीकर हम सुख के साथ जी सकेंगे। किसी बात को सुनकर तनाव आया, बुरा लगा, इसका अर्थ यह कि आप अपनी सहजता से हट गए, आपकी सहजता दुष्प्रभावी हो गई। मैं तो कहता हूँ जीवन में मस्ती होनी चाहिए। वह इन्सान ही कैसा जिसके जीवन में मस्ती न हो । मस्ती वही है जिसे कोई भी बाधा, कोई भी विकार, कोई भी दुःशब्द प्रभावित न कर पाए। उसका नाम अखण्ड मस्ती है । उसी का नाम ज़िंदगी है। ज़रा-ज़रा-सी बातों पर लोग रोने लग जाते हैं अर्थात् सहजता से नहीं जी रहे । हमें हाकुइन की वह कहानी हमेशा याद रखनी चाहिए जिसमें पड़ोस में रहने वाली लड़की किसी मछली व्यापारी के साथ प्रेम करके गर्भवती हो जाती है और घर के लोगों को सत्य नहीं बता पाती और तब संत हाकुइन का नाम ले लेती है । जब घरवाले हाकुइन के पास जाकर यह बात कहते हैं कि तुमने संत होकर ऐसा कर दिया, उसकी प्रतिक्रिया में संत इतना ही कहते हैं - ओह, तो ऐसा है, ठीक है। और अपने ऊपर लगाए गए लांछन को, कलंक को सहजता से ले लेते हैं । कहते हैं कि चार साल बाद जब वह लड़की मृत्यु - शैय्या पर थी तो मरने से पहले प्रायश्चित करती है और बताती है कि - उसका जो बच्चा है वह उस संत का नहीं बल्कि मछली व्यापारी का है घर के लोग संत के पास जाकर कहते हैं - हमें क्षमा करें, बहुत खेद की बात है कि हमारी बच्ची ने आप पर लांछन लगाया, और इतना बेइज़्ज़त किया। संत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, यही कहा- ओह, तो ऐसा है ? Is that so ? ठीक है।
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