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यह है वास्तविक वीतराग और वीतद्वेष स्थिति । यह सहजता ही जीवन में असली सुख को जन्म देती है। न गृहस्थी दुःख का निमित्त है, न संन्यास सुख का आधार है, व्यक्ति की दोनों ही स्थितियों में रहने वाली सहजता ही सुख का आधार है। जब-जब हम अपनी सहजता को खंडित करते हैं तब-तब तनाव, चिंता, स्ट्रेसनेस बढ़ती है। अगर व्यक्ति प्रकृति की व्यवस्था को समझ जाए कि यहाँ सब कुछ बदलता है तो सहजता आएगी ही। अगर कोई मुस्कुराकर बोल रहा है तो ज़रूरी नहीं है कि सदा-सदा ही मुस्कुराकर बोलेगा। Everything is changing. आप बदल रहे हैं, विचार बदल रहे हैं, यहाँ निश्चित ही सब कुछ बदलेगा। इसलिए न राग, न द्वेष । इस बात को दिल में उतार लें। किसी के शब्द आपको टेढ़े लग गए तो वही आपके जीवन की शांति की कसौटी बन जाएँगे। अगर दस बार आप खरे उतर गए तो ग्यारहवीं बार कहने वाला व्यक्ति सँभल जाएगा, आपकी निंदा न कर सकेगा। एक पिता अगर अपने पुत्र से कुछ पूछे और वह सच बोले तब भी पिता को विश्वास न हो पाए और अपने पुत्र को दंडित ही करे तब भी पुत्र सच ही बोले, बार-बार दंडित किये जाने के बावजूद बच्चा सत्य का दामन न छोड़े तब पिता को विश्वास हो जाएगा कि मेरा बेटा झूठ नहीं बोलेगा, उसे चाहे जितना दंडित किया जाए। इसलिए सहजता से जीओ। तभी तो कहते हैं जो फिकर का फ़ाक़ा करे वही फ़क़ीर । चिंता फ़िक्र कुछ नहीं, मस्त रहते हैं फ़क़ीर।
धर्म हमें मस्त रहना ही सिखाता है। मुक्ति का अर्थ ही मस्ती है। आनन्द से जीओ, प्रेम से जीओ, सहजता से जीओ । खास तौर से अपनी निंदा सुनकर, अपने प्रति कड़वे वचनों को सुनकर, अपने प्रति लगाए गए आक्षेपों को सुनकर, जीवन में किसी ख़ास नुकसान को देखकर - अपनी सहजता को बरकरार रख पाते हैं तो आप घर में रहते हुए भी संत हैं और व्यापार करते हुए भी मुक्त हैं। सहजता से जीओ, सुख से जीओ।
राग-द्वेष से मुक्त होना है, इसके संकल्प-विकल्पों को क्षीण करना है तो दूसरी बात यह है कि अपने जीवन में हमें ‘सम्मान' तत्त्व को अधिक जोड़ना होगा कि आप दूसरों को अपनी ओर से सम्मान देने का प्रयत्न करेंगे। अगर किसी का असम्मान हो गया तो यह अविवेक, अधर्म, पाप होगा फिर भी अपनी
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