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छापे पड़ जाएँ या माल बिके अथवा न बिके पर सत्य को जीने के सप्ताह का ध्यान रखेंगे। यह हो गया संयम । तीसरा सप्ताह अचौर्य है तो व्रत रहे कि सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स नहीं चुराएँगे, बिना बिल के माल नहीं बेचेंगे। चौथा सप्ताह है शीलव्रत का तो शील का पालन, ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे, मन को किसी भी स्थिति में विचलित होने से बचाएँगे। वाणी के द्वारा, काया के द्वारा भी असंयम नहीं करेंगे। यह हो गया शील का पालन । भोजन के प्रति राग-द्वेष, संकल्पविकल्प पैदा होते हैं तो उस पर नियंत्रण आ सके इसके लिए माह में एक दिन नमक का त्याग कर दें। अब जिस दिन तय है कि फीकी सब्जी ही खाएँगे तो मन को बुरा नहीं लगेगा क्योंकि हमारा संकल्प मज़बूत है, व्रत जो लिया है। जैन धर्म में व्यवस्था है कि व्यक्ति आयम्बिल तप करता है - उसमें घी, तेल, मिर्च, मसाले, नमक, हरी सब्जी, दूध, चाय, कॉफी सबका निषेध होता है। केवल उबला हुआ अन्न ही खाता है। यह तपस्या है, संयम है। जब कभी हम स्वाद को लेकर राग-द्वेष भरी वाणी कह जाते हैं तो यह उस पर संयम करने का तरीक़ा हो सकता है। जैसे कि माह में या सप्ताह में एक ही बार खाएँगे, एकासना करेंगे । एक दिन के लिए तो कम-से-कम स्वयं को तपस्वी बना लेंगे।
ऐसे स्वनिर्णय हमको खुद ही करने होंगे तभी राग-द्वेष कुछ कम हो पाएँगे। नहीं तो राग-अनुराग, द्वेष-विद्वेष से बाहर न निकल पाएँगे। राग-द्वेष की व्यवस्थाएँ तो संसार में चलती ही हैं लेकिन अगर हमें भव-तृष्णा और भव- चक्र को काटना है तो स्वयं को राग-द्वेष से मुक्त करना होगा। ध्यान की दशा में हम यही अभ्यास करते हैं, यही प्रशिक्षण लेते हैं, यही कोशिश करते हैं कि सुखद संवेदना का अनुभव करते हुए राग नहीं करें और दुःखदायी संवेदना का अनुभव होने पर द्वेष नहीं करेंगे । राग और द्वेष से मुक्ति के लिए सहजता से जीना ही श्रेष्ठ है। ऐसा हुआ, एक दफा हम जयपुर में थे, किसी के यहाँ आहार लेने के लिए गए हुए थे। उन्होंने हमें बादाम देनी चाही तो मैंने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि गर्मी के मौसम में बादाम अनुकूल नहीं रहती। उन्होंने तुरंत कहा - क्या महाराज सा'ब, आप बादाम के लिए इन्कार कर रहे हैं, मीराबाई तो ज़हर का प्याला भी बिना कुछ बोले पी गई थी। और आप... ? उस दिन मुझे लगा जब हम अपने अंदर विराजित प्रभु को अर्घ्य चढ़ाते हैं तो सच में इन्कार
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