________________
और वीतद्वेष होने के लिए स्वयं को स्थापित करने का नाम संन्यास है ।
एक ओर राग है, दूसरी ओर द्वेष है - जो हमारे कर्मों का बीज है । राग अर्थात् जुड़ जाना और द्वेष वह हथौड़ा जिसने संबंधों को तोड़ा। राग जोड़ता है द्वेष तोड़ता है। राग चिपकाता है मगर द्वेष दूर करता है । द्वेष से तो कोई लाभ होता ही नहीं है, राग का फिर भी कोई फ़ायदा देखा जा सकता है। मोह ममता का फ़ायदा हो सकता है लेकिन द्वेष का कभी कोई फ़ायदा नहीं होता । द्वेष में 1 तुम्हारी आत्मा गिरेगी, सामने वाले की आत्मा भी गिरेगी । एक दफ़ा इन्सान राग - अनुराग कर लेगा तो चल सकता है, पर द्वेष आत्मा को जन्म-जन्म तक भटकाएगा। इसलिए राग शुभ भी हो सकता है और अशुभ भी लेकिन द्वेष कभी शुभ और अशुभ में नहीं बाँटा जा सकता । ध्यान को शुभ और अशुभ ध्यान कहा जा सकता है, मानसिक एकाग्रता को शुभ या अशुभ कहा जा सकता है पर द्वेष ! इसका कोई शुभ पहलू होता ही नहीं है । इसलिए बुद्ध ने कहा न हि वैरेण वैराणि सम्मंति ध कुदाचन, अवैरेण च सम्मंति एस धम्मो सनंतनो । संसार का सनातन धर्म यही है कि वैर से कभी वैर शांत नहीं होता । प्रेम के द्वारा ही वैर को शांत किया जा सकता है।
राग घातक है, राग बाँधता है, राग डबरा है, नाला है, पर द्वेष राग से भी अधिक ख़तरनाक है। राग ज़हर तो है पर शरबत में मिला हुआ, पर द्वेष खालिस ज़हर है, शुद्ध ज़हर है। इसमें कोई मिलावट नहीं है । राग के कारण हम एक दूसरे को दैवीय रूप में भी निभा सकते हैं, पर द्वेष में तो इन्सान कभी कोई कमठ बनेगा, कभी कोई मेघमाली बनेगा, कोई चण्डकौशिक बनेगा, तो कोई अंगुलीमाल या अर्जुनमाली बनेगा । इसलिए द्वेष रखना व्यर्थ है । महावीर चाहते हैं कि व्यक्ति सुख के दरवाजों की ओर बढ़े और दुःख से मुक्ति पाए । और मुक्ति की ओर चलना है तो हमें सबसे पहले दुःख के दरवाजों को बंद करना होगा और दुःख के दरवाजों को बंद करने के लिए राग-द्वेष के दरवाजों को बंद करना होगा । हमारी हालत यह है कि हम प्रतिदिन राग और द्वेष के संकल्प - विकल्प करते रहते हैं। अगर कोई अच्छा बोल जाता है तो राग हो जाता है और बुरा बोल दे तो द्वेष हो जाता है । गति, दुर्गति और सद्गति क्रिया के आधार पर कम, संकल्प और विकल्पों के आधार पर अधिक होती है । हम लोग फुलके खाते हैं
९२
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org