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कैसे सुधारें विश्व का माहौल
विश्व के समस्त आत्मज्ञानी महापुरुषों ने प्राणीमात्र को यह बोध देने का प्रयास किया है कि व्यक्ति संसार में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता. है। चाहे बंद मुट्ठी आता हो लेकिन जाता तो खुली मुट्ठी ही है। गीता में श्रीकृष्ण पूछते हैं - तुम आए थे तो साथ में क्या लेकर आए और जब यहाँ से जाओगे तो सोचो क्या लेकर जाओगे । जहाँ स्वयं भगवान व्यक्ति को आध्यात्मिक चेतना, आध्यात्मिक बोध प्रदान करने की कोशिश करते हैं कि न साथ कुछ आता है न ही साथ कुछ जाता है फिर व्यर्थ के प्रपंच क्यों किए जाएँ ।
जीव अकेला आता है। अकेला जाता है, पर जीवन भर अकेला रहता नहीं है। व्यक्ति समुदाय, समाज, परिवार के बीच में रहता है। इसीलिए हम सभी सामाजिक प्राणी कहलाते हैं। हाँ, यदि हम अकेले रहते हों, अपने एकत्व का बोध हो तो अकेले रहने वाला व्यक्ति न तो कभी हिंसा करता है, न ही झूठ बोल सकता है, न ही चोरी या व्यभिचार कर सकता है क्योंकि वह अकेला है। पाप दुकेलेपन का परिणाम है। जब एक के साथ दो आ जाते हैं तब कोई बात छिपानी भी पड़ती है, डाँटना-डपटना भी पड़ता है, चोरी भी हो जाती है अर्थात् दो के होते ही नैतिकता की आवश्यकता आ पड़ती है । जहाँ द्वैत है वहीं सामाजिक मूल्यों की आवश्यकता है। जहाँ अद्वैत है वहाँ व्यक्ति स्वयं ही नैतिक होता है।
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