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अच्छा ही है। इसके उपरान्त भी जो उपयोग कर रहे हैं वे स्थूल रूप में ही अहिंसा का पालन करते हैं, सूक्ष्म रूप से नहीं। इसलिए वे इसे स्वीकार कर लेते हैं। यह अवश्य है कि अगर मंदिरों में इन चीजों से बचा जा सके तो अच्छा ही है। मंदिरों में फूल भी बहुत सारे नहीं चढ़ने चाहिए। प्रभु के प्रति श्रद्धा रखने के लिए पाँच-दस पुष्प पर्याप्त होते हैं। अधिक हिंसा-प्रतिहिंसा से बचना चाहिए। शादी-विवाह के मौकों पर होने वाले अत्यधिक फूलों के उपयोग से बचना चाहिए । फूल इन्सानों के लिए हार बनने को नहीं हैं। परमेश्वर को समर्पित किए जाएँ वहाँ तक मन स्वीकार कर लेता है लेकिन इन्सानों को प्रेम
और सम्मान का इजहार करने के लिए अन्य तरीके अपनाने चाहिए । जहाँ तक हो हमें हिंसा के दोषों से बचना ही चाहिए। फूलों में भी जीव है। जो हिंसा आवश्यकीय है, वही हिंसा स्वीकार्य है, शेष हिंसा का वर्जन होना चाहिए।
दूसरी है वाचिक हिंसा । हम वाणी के द्वारा दूसरों को ठेस पहुंचा देते हैं और परवाह भी नहीं करते । शुद्ध अहिंसावादी, आत्मचेता व्यक्ति यही कहेगा कि किसी को भी मर्माहत करने वाला शब्द कहना उसकी हत्या के समान ही है। बेहतर यही होगा कि वाणी के द्वारा हम किसी की आलोचना न करें, ज़्यादा टेढ़ी बात न कहें, उग्र प्रतिक्रिया न करें। यह विवेक तो रखना ही चाहिए कि इतनी उग्र प्रतिक्रिया न हो जाए कि संबंध ही बिखर जाएँ। दुनिया में दो बातें चलती हैं - अकड़ और पकड़। पकड़ का अर्थ है। जिन बातों को हमने पकड़ लिया हम उन्हें छोड़ते ही नहीं हैं। पकड़ भी कमज़ोर हो जानी चाहिए। जितनी जल्दी उसे भुला दिया जाए अच्छा है। दूसरी है - अकड़। अगर अकड़ रखेंगे तो टेढ़े शब्द बोलेंगे। अकड़ रखेंगे, तो कोई उपेक्षा कर देगा तो सहन नहीं होगा। तब वाणी के द्वारा हिंसा का यह दौर चलता रहेगा। भले ही हम किसी जीव-जंतु की हत्या न करते हों तब भी हिंसा जारी रहेगी।
मेरे विचार से अहिंसा का केवल इतना - सा मतलब नहीं है कि हम हिंसा नहीं करेंगे अपितु अहिंसा का अर्थ है हम दया-धर्म का पालन करेंगे, दीन-दुःखियों की मदद करेंगे। मैंने सुना है - अमेरिका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति भवन से संसद के लिए जा रहे थे कि रास्ते में एक गड्ढा नज़र आया जिसमें सूअर फँसा हुआ था। वह आर्त आवाज़ में पुकार रहा था। लिंकन को
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