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अक्षम्य अपराध है। जीवित प्राणियों को अगर वे गाजर-मूली ही समझते रहे तो इनकी हत्या करने में उन्हें कोई तकलीफ़ होगी ही नहीं। लेकिन ज्यों-ज्यों उनके भीतर मानवता जगेगी त्यों-त्यों निश्चित रूप से वे इसके ख़िलाफ़ होंगे और इससे बचना चाहेंगे। इसलिए जो शुद्ध शाकाहार ग्रहण करना पसंद करते हैं वे दूध और इससे बने पदार्थों का प्रयोग भी नहीं करते हैं। आजकल बहुत से लोग वरक का प्रयोग भी नहीं करते हैं क्योंकि वरक बनाने में चमड़े का उपयोग होता है। पर वरक का उपयोग न करने वाले वे ही लोग चमड़े की वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे विवेक जाग्रत होगा लोग इस प्रकार की वस्तुओं का उपयोग नहीं करेंगे और जब चमड़े का त्याग करेंगे तो हिंसा भी छोड़ेंगे ।
अभी तक अहिंसा पूरे विश्व में स्थापित हो नहीं पाई है, बस प्रयत्न चल रहे हैं। कुछ ही कौम, कुछ ही जातियाँ, कुछ ही परम्पराएँ ऐसी हैं जो शुद्ध रूप से शाकाहार लेती हैं और मांसाहार का वर्जन करती हैं । अभी भी व्यक्ति के भीतर मानवता को पैदा होने में वक्त लगेगा । हम सभी को प्रयत्न करने होंगे कि इन्सान इस बात की बुनियादी समझ प्राप्त कर सके कि किसमें हिंसा है और किसमें अहिंसा है। जो परंपराएँ विशिष्ट पशुओं के लिए यही समझती हैं कि ये तो खाने के लिए ही हैं वे परंपराएँ सूक्ष्म अहिंसा को कैसे स्थापित कर पाएँगी, कैसे जी पाएँगी। आज महावीर और बुद्ध की पुनः आवश्यकता है तभी वे अपने विशिष्ट व दिव्य ज्ञान के द्वारा दुनिया को जाग्रत कर सकेंगे और समझा सकेंगे कि दुनिया का अस्तित्व किस आधार पर टिका रह सकता है।
दूसरी परम्पराओं में भी दया व क्षमा का विधान है लेकिन जीव-जंतुओं के प्रति जितनी दया की आवश्यकता होती है उतनी प्रेरणा न तो दी गई है और न ही व्यवहार में लिया जा रहा है। अभी हम सूक्ष्म हिंसा के प्रति जागरूक नहीं हो पाए हैं इसलिए मिठाई आदि पर वरक का प्रयोग कर लेते हैं और मंदिरों में भगवान की आंगी के रूप में वरक का उपयोग कर लिया जाता है। अच्छा तो यही होगा कि अगर हम सूक्ष्म हिंसा के प्रति भी जागरूक हैं तो इस वरक का उपयोग न तो अपने लिए करना चाहिए और न ही परमेश्वर के निमित्त करना चाहिए। पर जो सूक्ष्मता के साथ अहिंसा का पालन नहीं करते हैं और जो स्थूल रूप से पालन करते हैं वे ही वरक का उपयोग करते हैं। अगर इससे बचा जाए तो
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