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व्यक्ति की शक्ति है, सत्य व्यक्ति की ताक़त है। हमने अगर सत्य को ही गिरवी रख दिया तो सब कुछ ख़त्म हो जाएगा।
अगर हम सत्य को जीवन में जीना चाहते हैं तो १. वाणी का सत्य ज़रूरी है। २. आचरण का सत्य अपनाया जाए। ३. आमदनी का सत्य बनाए रखा जाए। सत्य अर्थात् ईमान, सत्य यानी प्रामाणिकता। जो कह दिया उस पर कायम रहना - प्राण जाय पर वचन न जाहि।
अभी की बात है, एक व्यक्ति टाइल्स दिखाने के लिए आया था। उसने बताया कि उसका सेठ सिन्धी है और बहुत अच्छा आदमी है। मैंने कहा - आपने अपने सेठ को अच्छा कहा, कोई वज़ह ? कहने लगा - अभी टाइल्स के रेट सोलह रुपये चल रहे हैं, कहीं बड़ा ऑर्डर मिल रहा था तो मैंने चौदह रुपये में सौदा तय कर लिया। जब वापस दुकान पर पहुंचा तो पता चला कि उस दिन जो माल उतरा है वह अठारह रुपये में पहुँचा है। सेठ ने कहा - अब क्या किया जाए ! कर्मचारी ने कहा कि मैं जाकर उनसे कह देता हूँ कि माल महँगा हो गया है और हम चौदह रुपये के रेट में नहीं दे पाएँगे। तब सेठ ने कहा - नहीं ऐसा नहीं हो सकता। माल हमारे यहाँ भले ही महंगा आया हो, पर तुम हमारी फर्म में काम करते हो और तुमने चौदह रुपये बोल दिया है तो माल उसी रेट पर जाएगा। मेरे सेठ को मेरे कारण साढ़े आठ हजार रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। केवल इसी कारण कि वह अपने कर्मचारी की बात को भी स्वयं का कहा मानता है। हानि-लाभ तो होते रहते हैं, पर हमारा शब्द, हमारा वाक्य, हमारा सत्य परिवर्तित नहीं होना चाहिए। वाणी का सत्य भी सत्य है।
चाहते तो दशरथ भी कह सकते थे कि कैकेयी वह तो युद्ध के मैदान में दिया गया वचन था, राजमहल में दिया जाने वाला वचन नहीं है कि मैं कह दूँ राम को वनवास मिले और भरत का राज्याभिषेक हो जाए। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । वचन अगर मुंह से निकला है तो उस वचन के लिए स्वयं के प्राण भी त्यागने पड़ें और अपने सबसे प्रिय पुत्र को भी कुर्बान करना पड़े तो मैं करूँगा, लेकिन अपने सत्य की आन रखूगा । साँच साँच सो साँच - जो सत्य है वह सत्य ही होता है। जहाँ साँच तहाँ आप है - जहाँ सत्य होता है वहीं प्रभु (आप) का निवास होता है। Truth is God - सत्य ही ईश्वर है। वाणी से अगर बोल
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