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___ अहिंसावादी बनना है तो केवल यह मत सोचो कि पानी के जीव नहीं मरने चाहिए या ज़मीन पर चलने वाली बारीक चींटी, कीड़े-मकोड़े नहीं मरने चाहिए। यह ठीक है कि इस प्रकार की भी हिंसा हमसे नहीं होनी चाहिए, लेकिन निंदा, आलोचना, उग्र प्रतिक्रियाएँ भी हिंसा का ही एक रूप हैं। प्राणी मात्र के लिए मैत्री-भाव रखो। ध्यान-प्रार्थना के बाद अपने विरोधी के लिए प्रार्थना करें कि ईश्वर उसे सद्बुद्धि दे। मेरे मन में उसके प्रति सद्भाव है, उसके मन में भी मेरे प्रति सद्भाव हो । इससे हमारा आभामंडल निर्मल होगा । हमारे मन की धाराएँ निर्मल होंगी। अन्यथा शब्दों में तो कहेंगे कि विरोध नहीं करते, पर विरोध हो ही जाएगा। चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने विरोध हो ही जाता है।
हिंसा का निषेध ही न हो, अपितु सबके प्रति प्रेम हो, मैत्री हो, सम्मान हो। ऐसा काम हो कि दूसरों को सुकून मिले। सास द्वारा बहू को सम्मान देना पारिवारिक अहिंसा है और उसे लताड़ना पारिवारिक हिंसा है। भाई द्वारा भाई की मदद पारिवारिक सहयोग है, दया है और अपने ही भाई को कोर्ट में पहुँचाना पारिवारिक हिंसा है, पारिवारिक नफ़रत और घृणा है। अगर हम परिवार में ही अहिंसा को ठीक ढंग से नहीं जी पाते तो समाज में कैसे जी पायेंगे। इसलिए जीव-जंतुओं की हिंसा को ही हिंसा न समझें बल्कि जिस परिवार और समाज में हम जीते हैं उनकी हिंसा से भी बचना चाहिए और उनके लिए सहयोग का द्वार खोलना चाहिए।
दूसरा व्रत है 'सत्य'। 'अहिंसा' - अगर धर्म की धुरी है, ‘अहिंसा' अगर धर्म की माता है तो 'सत्य' धर्म को जन्म देने वाला पिता है। 'सत्य' वह अकेला धर्म है जिसमें दुनिया के सभी धर्मों को समाविष्ट किया जा सकता है। कहा भी तो यही जाता है - सत्यमेव जयते । यह भारत का आदर्श वाक्य है, पर भारत के नागरिक इस आदर्श वाक्य को जी न पाये । भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के चलते सत्य हमारे हाथ से चला गया। धर्मशास्त्र कहते हैं : सत्यं शिवं सुन्दरम् । सत्य है तो शिव है, शिव है तो सुन्दर है। केवल सौन्दर्य किस काम का अगर वह कल्याणकारी न हो। वही सौन्दर्य सही है जिसके भीतर शिव समाया हुआ है, कल्याण-भाव समाया है। और शिव-भाव उसी में है जिसमें सत्य है। सत्य
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