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नुकसान ही हैं। सावधानी से चलने पर प्राणी का रक्षण होगा, हमारे द्वारा किसी का वध नहीं हो पाएगा। जैन मुनि इसीलिए तो पैदल चलते हैं कि उनके द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी की भी हिंसा न हो जाए। जैन मुनि अगर ठेलागाड़ी में चलेंगे, व्हील-चेयर पर चलेंगे और पीछे से आदमी उन्हें धक्का देते हुए चलाएगा तो मेरे जैसा व्यक्ति उसे कतई अहिंसा नहीं कहेगा। किसी इन्सान के द्वारा धक्का दिलवाना भी हिंसा का दोष है। यह हिंसामूलक कृत्य हो गया। पैदल चलने का एकमात्र उद्देश्य यही है कि व्यक्ति द्वारा ईर्या समिति का पालन हो अर्थात् उसकी तरफ से सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की भी हिंसा न हो। और जब व्हील चेयर या ठेलागाड़ी पर ही चलना है तो इन्सान द्वारा धक्का लगवाए जाने से तो अच्छा है पेट्रोल-डीज़लचलित वाहन का प्रयोग कर लिया जाए। इससे कम ही हिंसा होगी।
_ (बीच में किसी ने प्रश्न पूछा है -) इस बारे में जागरूकता कैसे आएगी ? यह तो इन्सान को ज्यों-ज्यों समझ आ रही है, इन्सान प्रबुद्ध हो रहा है, संत भी ज्ञानी होते हैं, प्रज्ञाशील होते हैं - ज्यों-ज्यों उन्हें बात समझ आएगी वे आगे बढ़ेंगे। आजकल जब बीमार पड़ जाते हैं तो उन्हें समझ आने लगा है कि कार या एम्बुलेन्स का उपयोग कर अस्पताल शीघ्रतापूर्वक पहुँचा जा सकता है। वे इसमें बहुत बड़ा दोष नहीं मानते हैं। पच्चीस वर्ष पूर्व जैन मुनि फोन या मोबाइल का उपयोग नहीं करते थे लेकिन आज कई लोगों द्वारा प्रगट में या अप्रगट में, प्रत्यक्ष में या अप्रत्यक्ष में फोन, मोबाइल का उपयोग होने लगा है। खुद न छूते हों पर फोन करवा लेते हैं, करना-कराना अनुमोदन है। विज्ञान के आविष्कारों को हम हिंसा-अहिंसा से नहीं जोड़ सकते हैं। उपयोगिता के आधार पर जोड़ा जा रहा है कि यह बहुत उपयोगी है। हम किसी को बात करने के लिए अपने पास बुलायेंगे तो रास्ते में आने-जाने पर जो जीव हिंसा होगी उसकी बजाय तो फोन से संदेशा दे दिया जाए वह ज़्यादा ठीक है। इसलिए लोगों को उसकी उपयोगिता समझ में आने लगी है। परम्परागत रूप से जीने वाले समाज में भी जैसे-जैसे समझ आएगी वैसे-वैसे पुराने अंधविश्वास टूटेंगे, रूढ़िवादिताएँ कमज़ोर होंगी। बस आप प्रतीक्षा कीजिए। आने वाले वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका होगा। दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है, इसी के साथ मानव-जाति को, धर्म-संघ को भी
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