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दो के आते ही राग पैदा हो सकता है, अकेला रहे तो राग भी नहीं है । दो के आते ही द्वेष पैदा हो जाता है, राग और द्वेष, मोह और नफ़रत - एक से दो, दो से चार, चार से दस होने पर ही उत्पन्न होते हैं । जन्म से अगर अकेला आया है और जीवन भर अकेला ही रहता है तो कहीं राग और द्वेष के निमित्त खड़े ही न हो पाएँगे। जब हम दो-चार - दस... सौ . .. हजार हुए तब एक व्यापक समाज का निर्माण हुआ । इस निर्मिति के साथ ही हम लोगों के जीवन में सामाजिक और नैतिक मूल्यों की आवश्यकता होती है । यदि जीवन भर इस एकत्व का बोध रहे कि वह अकेला आया है और अकेला ही जाएगा तब वह स्वतः आध्यात्मिक चेतना का स्वामी बन जाता है ।
व्यक्तिगत चेतना के दो पक्ष हैं - एक स्वार्थमूलक, दूसरा अध्यात्ममूलक । अपने परिवार के लिए जीने वाला व्यक्ति स्वार्थी कहलाता है और ध्यान-साधनामूलक जीवन जीने वाला आध्यात्मिक । जब ऋषि वाल्मीकि से उनके गृहस्थ-जीवन में पूछा गया कि तुम यह सब हिंसात्मक कार्य किसके लिए करते हो ? क्योंकि तब उन्होंने सप्त ऋषियों पर आक्रमण कर दिया था। उस समय वे एक डाकू थे। तब ऋषियों ने उनसे कहा तुम अपनी आजीविका के लिए ऋषियों पर भी आक्रमण करने को तत्पर हो गये, सोचो जब इस पाप का उदय आएगा तब कौन भोगेगा । वाल्मीकि ने कहा- कौन क्या भोगेगा, सभी लोग मिलकर भोगेंगे। ऋषियों ने पूछा- तुम यह पाप किसके लिए कर रहे हो ? कहा - सभी के लिए कर रहा हूँ । मैं, मेरी पत्नी, बच्चे, मेरे माता-पिता सभी के लिए। ऋषि बोले जब इस पाप का उदय आएगा तो क्या वे भी सहभागी बनेंगे ? ऐसा करो, इस बात को घर जाकर पूछ आओ । वाल्मीकि घर जाते हैं, वहाँ घर के सभी लोग इंकार कर देते हैं और कहते हैं - हम तो सुख के साथी दुःख तो इंसान को अकेले ही भोगना पड़ता है ।
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तब वाल्मीकि चौंक जाते हैं। उनका हृदय परिवर्तित हो जाता है। सामाजिक जीवन में भी यदि हम कुछ भी उचित - अनुचित करते हैं तो हमें याद रखना चाहिए कि हमसे जुड़े हुए सभी लोग स्वार्थी चेतना वाले ही हैं ।
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गुफावासी व्यक्ति भी जीता है लेकिन खुद के लिए, वह भी स्वार्थी है स्व + अर्थ के लिए जीने वाला । उसका जीवन स्वान्तः सुखाय होता है ।
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