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के द्वारा कहे जाने वाले अप्रिय, कटु वचनों को सहन नहीं कर पाने के कारण हो रही हैं। वाणीगत हिंसा से बचने के लिए वाणी में मधुरता लानी चाहिए। अगर रिश्तों में कड़वाहट आ चुकी है तो आपसी सौम्य व्यवहार से रिश्तों में मिठास लानी चाहिए।
पारिवारिक वातावरण में भी अहिंसा को जीने का बोध रखना चाहिए। कटु वाणी, आलोचना, निंदा, चार लोगों के मध्य अपमान नहीं करें। ऐसा कुछ न बोला जाए कि व्यक्ति को अंदर तक चोट लगे और उसकी आत्मा दुःखी हो जाए। कटु वाणी के द्वारा हम हत्या के समान दोष के भागी बन जाते हैं। हम पर्युषण पर्व आने पर तो एक-दूसरे से क्षमापना कर लेते हैं लेकिन क्या वाकई में क्षमापना हो पाती है? हम पर्युषण पर्व की प्रतीक्षा क्यों करें जो भी जमा खर्च करने हैं वह हाथोहाथ ही कर लेना ठीक है। अगर लगता है कि हमारी वाणी से किसी के दिल को ठेस लगी है और सामने वाला भी हमें यह अहसास करवा दे कि हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए था तो यह न सोचें कि हमने जो कहा वह बिल्कुल सही कहा। हमारी दृष्टि में वह सही हो सकता है पर अगले को सही नहीं लगा न्, जितना जल्दी हो सके मामले को सुलझा लेना चाहिए।
ज़्यादा तैश में आकर न बोलें, प्रेम से बोलें, धीरे बोलें। जो बात तैश में कही थी वही प्रेम से कहने पर हिंसा का दोष नहीं लगता और रिश्ते भी नहीं टूटते, दिल में खटास नहीं पड़ती। पानी छानकर पीना आसान होता है लेकिन घरपरिवार में एक दूसरे को नीचा दिखाना, अपमान करना, विपरीत टिप्पणी करना यह बहुत बड़ी हिंसा है। इस तरह की हिंसा जीववध, प्राणीवध के समान ही हिंसा है। पारिवारिक वातावरण में हमारे द्वारा अहिंसा का आचरण हो, धार्मिक वातावरण में हमारे द्वारा अहिंसा का आचरण हो। समाज में किसी का अपमान न करें, बड़ों का सम्मान करें। समाज में प्रतिष्ठित लोगों को पब्लिक के बीच में अपमानित नहीं करना चाहिए।
धार्मिक रूप में भी अगर हम अहिंसा को जीने का बोध रखते हैं तो ख्याल रहे कि ऐसा कोई समारोह न हो जिससे हिंसा का दोष लगे। जब हम फूल में जीव मानते हैं तो परमात्मा के श्री चरणों में दो फूल चढ़ाने की थोड़ी-सी हिंसा के दोष को स्वीकार किया जा सकता है, पर भक्ति के नाम पर पूरे मंदिर को फूलों से
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