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सुख पाने को दर दर भटका, जन्म हुआ दुःखदाई ।। अब भी नाम सुमिर ले हरि का, जन्म बैठा क्यों खोए । श्वासों का अनमोल ख़ज़ाना, दिन-दिन लुटता जाए ।। मोती लेने आया तट पे, सीप से मन बहलाए ।
साँचा सुख तो वो ही पाए, शरण प्रभु की होए ।। बाहर के घर को खूब सजाते हैं, पर भीतर का घर ? बाहर में अगर झाड़ निकालते हुए चार तिनके झाड़ में से निकल भी जाएँ तो क्या ? मैंने देखा एक बूढ़ी माँ झाड़ लगा रही थी, कुछ तिनके गिर गए तो वह उन्हें इकट्ठा करके वापस झाड़ में खोंसने लगी। मैंने बुढ़िया माँ से पूछ ही लिया कि - अम्मा दो तिनके गिर भी गए तो क्या फ़र्क पड़ता है। उसने कहा - महाराज ! यों ही दो-दो तिनके रोज गिरेंगे तो झाड़ ही ख़तम हो जाएगी।
हम अपने मकड़जाल में इतने उलझे हैं कि झाड़ के तिनके तो जाते हुए नज़र आते हैं पर जाती हुई जिंदगी नज़र नहीं आती। अन्तरमन दूषित हो रहा है वह हमें नज़र नहीं आता। छोटी-सी बात भी हम सहन नहीं कर पाते हैं, धर्म की मोटी-मोटी बातें की जाती हैं। दूसरों को उपदेश देना बहुत सरल काम है, लेकिन उस पर अमल करना बहुत ही मुश्किल है। ज्ञान देने की नहीं, जीवन में उतारने की चीज़ है। ज्ञान-चर्चा रोशनी का लेनदेन है। वह प्रवचन केवल भाषणबाजी है जिसमें कथा बांचने के बाद आरतियाँ होती हैं और आरती में आए पैसे कथावाचक अपनी जेबों में डालकर चले जाते हैं। ज्ञानचर्चा तो वह है जिसमें हम प्यासे चातक की तरह बैठते हैं और अमृत बूंदों की प्रतीक्षा करते हैं कि वह कहीं से हमारे भीतर उतर जाए और हमारी जन्मों की प्यास बुझ जाए, अंधेरे में खड़े इन्सान को रास्ता सूझ जाए। ___नमो सिद्धाणं- सिद्धों को नमस्कार । जो हो गए हैं अब निर्दोष, जिनके सारे दोषों का शमन हो गया है, जिन्होंने स्वयं तो मुक्ति पा ली है और औरों को भी मुक्त कर रहे हैं, ऐसी मुक्त चेतनाओं को नमस्कार । इस संसार में प्रथम पूज्य वही होता है जो स्वयं मुक्त हो गया है और दूसरों की मुक्ति के लिए पदचाप छोड़ता है। उस किनारे पहुँचना है तो महावीर, राम, कृष्ण, बुद्ध को जिन्होंने उस पार का स्वाद चख लिया है, उस पार के शिखरों का स्पर्श कर चुके
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