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अपमान करते हैं यह भी एक तरह की हिंसा है।
हिंसा के क्रियामूलक और विचारमूलक दो रूप होते हैं। क्रियामूलक हिंसा तो हम कम से कम करते हैं लेकिन विचारमूलक, भावमूलक हिंसा हम लोगों के द्वारा हो ही जाती है। विचारमूलक या भावमूलक हिंसा पर व्यक्ति का नियंत्रण होना चाहिए। हालाँकि इसके पीछे हमारी अपनी कमज़ोरियाँ भी हैं क्योंकि विचार पूरी तरह से हमारे नियंत्रण में नहीं होते । होश और बोध रखने के बावजूद विचार अपने आप पैदा हो जाते हैं, जबकि क्रिया हमारे द्वारा सम्पादित की जाती है। क्रिया पर तो हम अंकुश लगा सकते हैं लेकिन विचारमूलक हिंसा पर पूरी तरह अंकुश लगा पाना हमारे लिए कठिन होता है । जैसे- किसी का अपमान करना बुरा है, किसी को गाली देना हिंसा है यह सूक्ष्म हिंसा है। फिर भी अनजाने में ही सही क्रोध आने पर सहनशीलता कमज़ोर हो जाती है और न चाहते हुए भी मुँह से टेढ़े शब्द निकल ही जाते हैं। हम लोग विचारमूलक हिंसा पर अंकुश लगाने की कोशिश करेंगे, पर क्रियामूलक हिंसा पर तो हमारा अंकुश लग ही जाना चाहिए।
घर
साधना-मार्ग का अनुसरण करने वालों को क्रियामूलक अहिंसा का पालन करने के लिए चलते-फिरते भी अहिंसा का बोध रखना चाहिए कि जाने-अनजाने में भी छोटे से छोटे जीवाणु की हत्या न हो जाए। वाहन चलाते समय सड़क पर आने वाले जीवाणु को तो हम नहीं बचा सकते, पर विवेक की बात यह होगी कि से वाहन निकालते समय यह देख लें कि उतने रास्ते पर तो कोई जीवाणु नहीं चल रहा। उसे बचाने के लिए पहले वहाँ सफाई कर लें तब गाड़ी को गैरेज से बाहर निकालें, उनकी हिंसा के दोष से तो हम बच जाएँगे । खाना खाने में हिंसा का दोष लगता ही है लेकिन बिना खाए रह नहीं सकते इसलिए यह विवेक अवश्य रखें कि ऐसे पदार्थों से स्वयं को बचाएँ जिनसे हिंसा का अधिक दोष लगता हो । माना कि हमारे सामने आलू, टिंडसी और अंडा तीन चीजें हैं अब हमें अपने विवेक से निर्णय लेना होगा कि किसे खाएँ और किसे छोड़ें। अंडे और आलू में से चुनना हो तो आलू बेहतर विकल्प है, आलू और टिंडसी में से टिंडसी को खाना चाहिए क्योंकि आलू जमीकंद है अतः उसे छोड़ देना चाहिए । टिंडसी को सूर्य की रोशनी मिल चुकी होती है। उसमें जीवाणु कम होते हैं। अहिंसा के विकल्प अगर मौजूद हैं तो हमें उन्हें ही चुनना चाहिए ।
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