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सवाने - उमरी.
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लखनउसे महाराजने तीर्थसमेतशिखरकी जियारतकेलिये तयारीक, रास्ते में श्रावकोकी आबादी कमहोनेसे पैदलजानेका इरादा मोकुफ रखा, और द्रव्यक्षेत्रकालभाव देखकर रैलमे सवारी करना दुरुस्त समझा, इरादे धर्मके जव जैनमुनि - मुल्क-व-मुmeat सफर करे और रास्तेमें नदी - या - दरयाव आजायतो नावमें बेठकर पारहोवे ऐसा हुकम है, अगर कोइमुनि - शौखसे- या - आरामकेलिये रैलसवारीकरे तो बेशक! पापहै, और उसकी मुमानियतभी है, क्योंकी उसका इरादा धर्मपर नही रहा, आजकल श्रावक लोग व सवव रैलके अपना वतनछोडकर हजारों कोसोपर जा से है, जहांकि - धर्मका नामनिशानभी नहीपाता और वहांकोइ जैनमुनि उनकों धर्मका रास्ता बतलानेवाले नहीमिलते, ऊसहाल
को जैनमुनि राधर्मके रैलमें सवार होकर वहांजावे और तालीमधर्म की देवे-तो- धर्मका फायदा है, जमाने हालमें कितनेक जैनमुनि जव समेतशिखर वगेरा बडेतिर्थकी जियारतकों जाते हैया जहां श्रावको की आबादी कमहो वैसी जगह - विहारकरते है, तो उनकेशाथ श्रावक-श्राविका - बेलगाडी -- नोकरचाकर शाथचलते है, मुनिलोग खुदजानते हैकि - यहकार्य - हमारे निमित्तसे होता है, अगर कहाजायकि इसमें - इरादे धर्मके भावहिंसा नही और बिना भावहिंसा के पापनही - तो इसीतरह यहबात रैलसवारीमेभी क्योंन - समझीजाय ? जोजो जैनमुनि श्रावकों की - या - नोकरचाकरोंकी
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नामदद अकेले पैदल विहारकरते है-वे- बेशक! अछे है, मुल्क गुजरात में जहांकि गांवगांवमें जैन श्वेतांवर श्रावकोकी आबादी है, वहां पैदल विहारकरना ज्यादह मुश्किलनही, मगर तमाम हिंदुस्थानमें जहांकि श्रावकोकी आबादी नहीं है वहां जैनमुनिकों वगेर दूसरोंकी मदद - या - रेलके जानाआना मुश्किलहै, ऐसासमझकर महाराजने रैलमें, सफर करना मुनासिब समझा,
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