Book Title: Kitab Jain Tirth Guide
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 549
________________ जिनगुण स्तवन-और-उपदेशिकपद. ( ४३१ ) इनसेती जीते नरदेही-भये मुक्तिका मीता, बार बार विनवे कर जोडी-नवल प्रेमरस पीतारे, कोइ. ४ [तीर्थंकर नेमिनाथजीका स्तवन-ठुमरी.] . मूरत निरखी शामरी-नींद उचटगइ सघरी मोहकी, मुरत. ए टेर. नेमीश्वरके पदफरसतही-पायो-में विसरामरी, नींद उचट गइ. १ ध्यानारुढ निहार छबीकों-छुटत भव दुखधामरी, नींद उचटगइ. २ मुनिजन याको ध्यान धरत नित-पावत आतमरामरी, नींद. ४ [उपदेशिक पद-ठमरी, ] समज परी मोहे समज परी-जग माया अब जुटी मोहे समज परी,कालकाल-तुं-क्या करे मूरख-नाही भरुसा पल एक घरी, जगमाया? गाफिल छिनभर नाही रहो तुम-शिरपर घूमे तेरे काल अरि, जगमायार चिदानंद यह बात हमारी-जानो तुम चितमाही खरी, जगमाया, ३ [उपदेशिक पद-भैरवी,] मूढ मन मानत नाहीरे,-भयो परम धरमसे बैंमुख बेशरम, मन, परद्रव्यनको डोले रोता,-फिरे गांठकी संपत खोता, डूब रसातल मारे गोता-सुख चाहे और करे कुकर्म, मन, ? चीर अभ्यास कियो जिनशासन- बेठो मारमारके आसन, तदपि न भयो ज्ञानप्रकाशन-मूढ भयो लखतनको चरम, मन. २ अरे नेनसुख ! हियेके अंधे-अबतो त्याग जग्तके धंदे, मतकर नामयतिनके गंदे-तजके जतनकर यतन धरम, मन. ३ [ उपदेशिक पद-भैरवीकी ठुमरी-कहरवा,]. अब हम लीनो आत्मज्ञान-भेद विज्ञान जन्यो घटमांही, अब. १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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