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तवारिख-तीर्थ-अंतरिक्षजी, (३१३) उसवख्त वहां उनोने वालरेत इकठी करके मंत्रबलसे पाककिइ और भावितीर्थकर पार्श्वनाथ महाराजकी एक मूर्ति बनाइ, और उसकी पूजाकरके खानाखाया, चलतेवख्न उस मूर्तिको तालावके कनारे जायेनशीनकिइ और अगाडी बढे, बहुतअर्सतक वह मूर्ति वापर कायमरही, जब विंगलनगरका-श्रीपालनामका राजा-किसीमोकेपर-वहांआया, और उसके बदनमें-जो-कोटकी बीमारीथी उसतालावमें स्नानकरनेसे रकाहुइ निहायत खुशहुवा. और जब-अपने बतनको गया रानीभी उसकी बहुत खुशहुइ, और तारीफ करने लगीकि-क्याही ! उमदावातहुइ आपकी कोढबीमारी एकदम चलीगइ, बाद जब खापीइकर सोगये अधिष्टायक देवने रानीके ख्वाबमें आनकरक हा तुमारे खाविंदकी बीमारी बदौलत उसमूर्तिके रफाहुइ है, उसमूर्तिकों अपने वतनपर लाना चाहोतो एक रथ बनाकर उसको सातरौजके बेललगाना और कचे सूतकी लगाम तयार करके-उस यूर्तिकों रथमें वेठाना, ओर अपने बतनको लाना मगर यादरहे रास्ते कभी पीछामुडकर देखनानही, अगर देखोगेतो मूर्ति वहीं ठहर जायगी और फिर उसका आना-न-होसकेगा, शुभह होते रानीने यह सव माजरा राजासे कह सुनाया और राजाने उ. सी मुआफिक किया, ( यानी ) मूर्तिको रथमें बैठाकर लेचले, जब थोडीदूरपहुचे राजाने मुहफेरकर देखातो मूर्ति रथसे अलग आस्मानमें बिना आधार आसरेके ठहरीहुइ देखी, उसबख्त वडाताज्जुबकिया और दिलमें सौचाकि-इसी जगह-मूर्तिकों कायम करना मुनासिबहे, आस्मानको संस्कृत जबानमें अंतरिक्ष कहते है इसलिये बिना आसरेके ठहरने वाली मूर्तिको लोगोने अंतरिक्षनामसे मशहूरकिइ, राजाने वहांपर शहरआवाद किया और उसकानाम-श्रीपुररखा, बडाखुबसुरत मंदिर बनाकर मुर्तिकों उसमे तख्तनशीनकिइ.
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