Book Title: Kitab Jain Tirth Guide
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown
View full book text
________________
. ( ४२६ ) जिनगुण स्तवन -और-उपदेशिकपद.
३
तीन लोकके स्वामी तेरे अंगन में बिचरे, माइ मेरो, श्रीवर्द्धमान जिनंदकी मूरत देखे बिन ना सरे, माइ मेरो, ४ दासचुनी प्रभु चरन सरन ग्रही - भवभ्रम व्याध टरे, माइ मेरो, ५
[ उपदेशिक पद-भैरवी - या -कालिंगडा, ]
कौन किसीका मित- जगतमे-कौन किसीका मित, ए टेर, माततात तिरिया सुत बंधव - कोइ न रहत निचित, जगतमे १ सबही अपने स्वारथके है- परमारथ नही प्रीत,
स्वारथ विनसे सगो नही होवे - मिता मनमे चिंत, जगतमे, २ उठ चलेगो आप अकेलो - तुंही - तुं मुविहित,
को- नही तेरा - तुं-नही किसका-येही अनादि रीत, जगतमे, ३ ताते एक भगवान भजनकी - राखो मनमें नीत, ज्ञानसार प्रभु राग भैरवी गायो आतम गीत, जगतमें,
[ जिनगुण स्तवन- रागिनी भैरवी, ]
मिथ्या नींद-में- खोइ, आज प्रभु तेरे चरने लागा, मिथ्या, एं टेर, दर्शन कर परसन मन मेरो,-आनंद चित अब होइ, आज प्रभु, १ तुम बिना और न कोई मेरा - देखा त्रिभुवन जोइ, आज प्रभु, २ दास तुमारो करत विनती - तुम प्रभु भवभव होइ, आज प्रभु, ३
[ उपदेशिक पद- रागिनी भैरवी, ]
समझ मन ! कोई नही अपना, समजमन, ए टेर.
दौलत दुनिया माल खजाना - सुखसंपत सुपना, समजमन. मातपिता सुत कुटुंब कावेला - मुखसंपत सुपना, डोलत क्यों जगदेख दिवाने - सुखसंपत सुपना,
समजमन.
समजमन.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१
www.umaragyanbhandar.com

Page Navigation
1 ... 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552