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( २ )
इबादत.
चाहत जीवसभी जगजीवन - देहसमान कछु नहीप्यारो, संयमवंत मुनीश्वरकों उपसर्गपडे तन नासन हारो, त्युं चितवें हम आत्मराम - अखंड अबाधत ज्ञान हमारो, देह अचेतन सो हम तो नही - सत्यचिदानंदरूप हमारो. ( रहम करना जीवोंपर, )
करना जिनशासन मूलकही - सबहि गुन आय मिले टुरके, मिल संघ बनी शिवराहचले-मगमांहि घने पुरहै सुरके, जिनकेतक शहरमें पुरमें - शिवजे पहुचे - न-चले मुरके, सुरते पुर फेरल शिवकों - इसभातसु बैन सुने गुरुके, ( दोहा . )
धर्म करत संसार सुख-धर्म करत निर्वान, धर्म पंथ साधन विना-नर तिरियंच समान,
(शुरुआत - किताब. )
तीर्थों मेंफिरने से आदमी के इरादे पाकहोते है. और अशुभ कमी निर्जराहोती है, आदमीका चौला पाकर जो शख्श तीर्थोंकी 'जियारतकों नही जाते है - वे - धर्मकेबडे हिस्से से अबतक खारिज है ऐसा कहना कोsहर्जनही. बहुतरौजसें हमाराइरादाथाकि- जैन श्वेतांबर तीर्थों को किताव ऐसीतयारकरे जिसकेजरीये आमजैन श्वेतांबर फिरकेकों फायदा पहुचे. दुनिया में जहारीलोग जवाहिरातकों बेचते है और सोनहार - गेहने - जेवरको - कोइ शालदुशा लेकों और कोइ
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