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तवारिख - तीर्थ - आबु.
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लगालेवेतो अदृष्टहोजातेथे, आजकल जमाना नाजुक है उमदाचीजे गाय होती जाती है, और कमजोरचीजें दरपेशहोती है, पेस्तरयहां पीले रंग के पथर जैसे होतेथे अगरऊनकों दूधकेसाथ घीसकर बदनपर लगादियेजाय तोतयामवीमारीयां रफाहोतीथी, ताकतवर औष
ये यहां ऐसी होती थी जिसकों खाकर आदमी हजारशख्शो की बराबर ताकतहासिल करताथा, मगर आजकलसीर्फ ! सुननेकेलिये बातेंरह गइ, न-वे चीजे है-न-वे आदमी है, आबुकल्पमे लिखा है, -
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न सवृक्षो न सा वल्ली-न तत्पुष्पं न तत्फलं, नसकंदो न सा शाखा - या नैवात्र निरीक्ष्यते, १
ऐसा कोइद्ररूत - लता - वल्ली - फल - फुल - और - कुंद -- नहीथाजो यहां पर नही पायाजाताथा, पेस्तरयहां सिद्धरसहोताथा, बुजुर्ग लोग कहाकरते है कि
पदेपदे निधानानि - योजने रसकुंपिका, भाग्यहीना न पश्यंति- बहुरत्ना वसुंधरा, १,
आबुकीहवा मुल्कोंमेंमशहूर है गर्मीयों के दिनो में भी रातकोंयहांपर शर्दी मालूम होती है, कड़किसम के परींदेद्रख्तों पर कलोलेकरते है, आम अनार - अंजीर - बादाम - अंगुर - केले - जामफल- जंभीर - नींबु - - नरंगी गुलर - खजूर - अद्रक - पोंदिना - कुष्मांड - कठेर - केर--कविठ - ककडीऔर- कचनारवगेराकइचीजें यहांपरपैदा होती है, फुलों का बयान सुनो तो- तरहतरहकेगुलाब - हजारोमणपैदा होते है, चंपाकेद्रख्त औरफुल उसके बेशुमारउतरते है, गर्मीयोंमें और बारीश में जिधर देखो फुलोंकी खुशबूमहेकरही है, औरतरहतरहके गिरेहुवेफुल जमीनपर इसकदर बीछेहुवे दिखाइदेते है, मानो ! कोइऊमदा कालीनवी छाहुवा है, जाइ - जुइ - केतकी - डमरा-मरूआ - केवडा - और चमेली हरकिसमकी यहां
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