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एक दूसरे विद्वान् फर्गुसनने घोषित किया था कि जैनोंने गुफाएँ नहीं बनाई -- इस बातका भी कठिनतासे निराकरण हुआ । श्राज अनेक जैन गुफाएँ जैसे उदयगिरि – खंडगिरि (उड़ीसा), उदयगिरि ( भेलसा, मध्य भारत), जोगीमारा ( मध्यप्रदेश -- सरगुजा, ढंकगिरि (सौराष्ट्र-- शत्रु जय के पास), इलोरा (हैदराबाद) एहोल (बादामी ताल्लुका), चाँदवड़ ( नासिक ), सित्तन्नवासल ( पडुक्कोटा ) श्रादिकी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी हैं। अनेक वर्तमान लेखकोंको जैन- मूर्तियों के लक्षण, चिह्न और परिकरोंका यथार्थ ज्ञान न होनेके कारण भ्रामक मान्यताओं के उल्लेखका दोषी होना पड़ता है। लाहौर से प्रकाशित, श्री भट्टाचार्य लिखित जैन श्राइकोनोग्राफी में ऋषभनाथका चित्र दो बार छापा है और बैलका चिह्न होते हुए भी मूर्तिको महावीरकी मूर्ति लिखा है। प्रयाग संग्रहालयके विवरणोंमें पार्श्वके यक्षको गणपति मानकर लिखा है कि जैनियों में गणेशकी पूजा होती है । त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) में एक मूर्तिके परिकरमें दो युगल मूर्तियों को देखकर एक विद्वानने लिखा है कि यह अशोककी सन्तान संघमित्रा और महेन्द्रकी मूर्तियाँ हैं, जब कि मूल मूर्ति नेमिनाथकी है, जैसा कि शंख चिह्नसे लक्षित है । वास्तवमें परिकरकी मूर्तियाँ अम्बिका और गोमेव यक्षकी हैं ।
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दूसरी बात जिसकी और मैंने प्रस्तावनाके प्रारम्भमें संकेत किया है, वह है हमारे पुरातत्वों और कलाकृतियोंको हृदयहीन उपेक्षा | 'खण्डहरोंवैभव' में लेखक ने विशेषकर मध्यप्रदेशके पुरातत्वोंका ही वर्णन किया हैं, जिन्हें उसने अपने पैदल भ्रमणमें स्वयं देखा है । किन्तु इतने सीमित प्रदेशकी यात्रामें प्राय: पग-पग पर उसने इस 'वैभव' की जो दुर्गति देखी, उसे पढ़कर हृदय विकल हो उठता है । देखिये कितने भयानक हैं यह
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१. यह पौनार है, ( पवनार = प्रवरपुर - वर्धा के पास ) महाराज प्रवरसेन - का बसाया हुआ जो किसी समय मध्यप्रदेशकी राजधानी
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