________________
जैनशासन
इस विचारधारा अकर्मण्यताकी पुष्टि देख करने में प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है। हो, कर्मो के दाताका कार्य करता है ।
२०
कोई चिन्तक सोचता है कि जब जीव स्वेच्छानुसार कर्म करने में स्वतन्त्र है और इसमें परमात्मा के सहयोगको आवश्यकता नहीं है तब फलोपभोग में परमात्माका अवलम्बन अंगीकार करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। एक दार्शनिक कवि कहता है
को काको दुख देत है, देत करम झकझोर |
उरले-सुरझे आपही ध्वजा पवनके जोर || 'भैया' भगवतीदास |
1
कोई कोई यह कहते है कि कर्म फल- विभाजन में परमात्मा न्याय
अध्यात्म रामायण में कहा है- सुख-दुःख देनेवाला कोई नहीं है। दूसरा सुखदुःख देता है यह तो कुबुद्धि ही है-
"सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।"
I
इस प्रकार जीवके भाग्य निर्णय के विषयमें भिन्न-भिन्न धारणाएँ विद्यमान है । इनके विषय में गम्भीर विचार करनेपर यह उचित प्रतीत होता है कि अन्य विषयोंपर विषार स्थानमें पहिले परमात्मा के विषय में ही हम समीक्षण कर लें कारण, उस गुल्मीको प्रारम्भ में सुलझाए बिना दस्तुत्तस्वकी तहतक पहुँचने में तथा सम्यक् चिन्तनमें बड़ी कठिनाइयां उपस्थित होती हैं । विश्वको ईश्वरको क्रीड़ा-भूमि अंगीकार करनेपर स्वतन्त्र तथा समीचीन चिन्तनाका लांत सम्यक्रूपसे तथा स्वच्छन्द गति से प्रवाहित नहीं हो सकता। जहाँ भी तर्कणाने आपत्ति उद्यायी वहाँ ईश्वरके विशेशधिकारके नामपर सब कुछ ठीक बन जाता है क्योंकि परमात्मा के दरबार में कल्पनाकी बटन दबायी कि कल्पना और तर्कसे अतीत तथा affese arer परीक्षण में न टिकनेवाली बातें भी यथार्थताकी मुद्दासे अंकित हो जाती हैं ।
१. "ईश्वरा सिद्धेः ।"
ईश्वरको विश्वका भाग्य-विधाता जैन दार्शनिकोंने न मानकर उसे ज्ञान, आनन्द, शक्ति आदि अनन्य गुणका पुञ्ज परम आत्मा (परमात्मा ) स्वीकार किया है। इस मौलिक विचारस्वातन्त्र्य के कारण महान् दार्शनिक चिन्तनकी सामग्रीके होते हुए भी वैदिकदार्शनिकोंने षट्दर्शनोंकी सूची में जैन दर्शनको स्थान नहीं दिया । अस्तु, प्रसिद्ध षट् दर्शनों में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाला सांख्यदर्शन ईश्वर-विषयक जैन- विचार - शैलीका समर्थन करता है'। सेश्वर सांख्य
सांख्य
བྷ॰
० ११९२ ।